बुधवार, 19 दिसंबर 2018

व्रत एवं त्यौहार - वर्ष 2019


नमो राघवाये


हिंदू या सनातन धर्म विविधता से परिपूर्ण है। हिंदू धर्म वास्तव में एक जीवन पद्धति है। हर साल होने वाले तीज, त्यौहार, कर्म कांड ही हिंदू धर्म की विविधता और विशालता को दर्शाते हैं। होली दिवाली से लेकर हिंदू धर्म में कई शुभ तिथियों और त्यौहार का बड़ा महत्व है। इन अवसरों पर हिंदू धर्म के अनुयायी पूजा, जप-तप, व्रत और वैदिक कर्मों को शुभ मानते हैं।

भारत को तीज-त्यौहारों का देश कहा जाता है। यहां हर महीने कोई न कोई पर्व और मांगलिक अवसर पड़ते रहते हैं। एक ओर जहां अगले साल का पहना महीना सफला एकादशी से शुरू होगा वहीं साल का आखिरी महीना मासिक शिवरात्रि पर खत्‍म होगा। अतः वर्ष 2019 बहुत ही शुभ फलप्रदायक होने वाला है।

आध्यात्मिक प्रकाशबिन्दु पेश करता है हिंदू पंचांग पर आधारित कैलेंडर, तो जानिये वर्ष 2019 में पड़ने वाले तमाम तीज, त्यौहार, तिथियां और व्रत -



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।   जय जय श्री राधे   ।    जय जय श्री राधे   ।    जय जय श्री राधे ।
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शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

भगवत सेवा अपराध

नमो राघवाये,

आज के इस सत्र में हम आपको बताने जा रहे है कुछ सेवा अपराधों के बारे में। सेवा अपराध, वे अपराध होते है जिन्हें हम जाने-अनजाने में एवं भूलवश करते रहते है जिससे हमारी सेवा दूषित हो जाती है एवं हमें यथोचित फल की प्राप्ति नही होती।

श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार,
सेवापराध बत्तीस प्रकार के माने गये हैं —

१- सवारी पर चढक़र अथवा पैरों में खड़ाऊँ पहनकर श्रीभगवान्‌ के मन्दिर में जाना।
२- रथयात्रा, जन्माष्टमी आदि उत्सवों का न करना या उनके दर्शन न करना।
३- श्रीमूर्ति के दर्शन करके प्रणाम न करना।
४- अशुचि-अवस्था में दर्शन करना।
५- एक हाथ से प्रणाम करना।
६- परिक्रमा करते समय भगवान्‌ के सामने आकर कुछ न रुककर फिर परिक्रमा करना अथवा केवल सामने ही परिक्रमा करते रहना।
७- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने पैर पसार कर बैठना।
८- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दोनों घुटनों को ऊँचा करके उनको हाथों से लपेटकर बैठ जाना।
९- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने सोना।
१०- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने भोजन करना।
११- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने झूठ बोलना।
१२- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने जोर से बोलना।
१३- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने आपस में बातचीत करना।
१४- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने चिल्लाना।
१५- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने कलह करना।
१६- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने किसी को पीड़ा देना।
१७- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने किसी पर अनुग्रह करना।
१८- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने किसी को निष्ठुर वचन बोलना।
१९- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने कम्बल से सारा शरीर ढक लेना।
२०- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दूसरे की निन्दा करना।
२१- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दूसरे की स्तुति करना।
२२- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने अश्लील शब्द बोलना।
२३- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने अधोवायु का त्याग करना।
२४- शक्ति रहते हुए भी गौण अर्थात् सामान्य उपचारों से भगवान्‌ की सेवा-पूजा करना।
२५- श्रीभगवान्‌ को निवेदित किये बिना किसी भी वस्तु का खाना-पीना।
२६- जिस ऋतु में जो फल हो, उसे सबसे पहले श्रीभगवान्‌ को न चढ़ाना।
२७- किसी शाक या फलादि के अगले भाग को तोडक़र भगवान्‌ के व्यञ्जनादि के लिये देना।
२८- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह को पीठ देकर बैठना।
२९- श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दूसरे किसी को भी प्रणाम करना।
३०- गुरुदेव की अभ्यर्थना, कुशल-प्रश्र और उनका स्तवन न करना।
३१- अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना।
३२- किसी भी देवता की निन्दा करना।

इस प्रकार,
इन सेवा अपराधों से बचकर हम सहजता से भगवत्कृपा प्राप्त कर सकते है।

आपका मित्र
अधम शिरोमणि

सोमवार, 12 नवंबर 2018

अनमोल वचन

“अनमोल वचन”
(श्रीमत् स्वामी श्रीनिगमानन्द सरस्वती परमहंसदेवजी)

१. किसी भी चीज का अपव्यय करने का नाम पाप है – चाहे वह धन हो, शरीर हो या धर्म हो । सद्व्यवहार धर्म और अपव्यवहार पाप है ।

२. चोर के साथ रहकर चोर बनना जितना आसान है, साधु के साथ रहकर साधु बनना उतना आसान नहीं है । 
जैसे ऊपर से नीचे आना आसान है, पर नीचे से ऊपर जाने के लिये काफी प्रयत्न करने होंगे, तभी कहीं ऊपर उठाना सम्भव होगा ।

३. जो व्यक्ति दूसरों की निन्दा करता है, वह स्वयं भी कभी अच्छा आदमी नहीं है ।

४. घर-बार छोड़ने का नाम त्याग नहीं है, आसक्ति के त्याग को ही ज्ञानी जन त्याग कहते हैं ।

५. आहार के साथ धर्म का सम्बन्ध है, क्योंकि शरीर और आत्मा एक साथ हैं । आहार सावधानीपूर्वक नहीं करने से धर्म नष्ट होता है ।

                    


६. सुख शरीर के किसी अंग-विशेष पर प्रकाशित होता है, जबकि आनन्द पूरे शरीर में व्याप्त होकर प्रकाशित होता है । सुख और आनन्द में यही अन्तर है ।

७. साधना और भजन में व्यस्त रहकर जगत् की उपेक्षा करना धर्म नहीं है । दयामय ईश्वर के प्रेम के आदर्श पर यदि जगत् के जीवों से प्रेम किया जा सकता है, तो वही सच्चा धर्म है । संसार का त्याग करना धर्म नहीं है, आत्मत्याग ही धर्म है ।

८. किसी दूसरे में दोष दिखाई देने पर अपनी ओर दृष्टि डालकर देखो, तुममें भी वह दोष है अथवा नहीं ।

९. चरित्र को सुधारा जा सकता है, परंतु स्वभाव में परिवर्तन होना बड़ा ही कठिन है; क्योंकि स्वभाव का अर्थ है स्व-भाव । यह जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का फल है ।

१०. यदि बड़ा बनना चाहते हो तो पहले छोटा बनो ।

११. ज्ञानवान् होकर जब किसी की अवस्था शिशु-जैसी हो जाती है, तब वह परमहंस हो जाता है ।

१२. निष्काम उपासना को परम धर्म कहा जाता है।


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आपका मित्र
अधम शिरोमणि

शनिवार, 11 अगस्त 2018

तीन बातें

नमो राघवाये,

तत्व-प्राप्ति में निषेधात्मक साधन मुख्य है । किसी भी साधक को 3 बातों को स्वीकार कर लेना आवश्यक है - 

१. मैं शरीर नहीं हूँ :- 
मैं चिन्मय सत्तारूप हूँ, शरीर रूप नही हूँ । हमारी सत्ता (होनापन) शरीर के अधीन नहीं है । शरीर के साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । शरीर को अपना मानना मूल दोष है, जिससे संपूर्ण दोषों की उत्पत्ति होती है । जन्मना मरना हमारा धर्म नहीं है प्रत्युत शरीर का धर्म है ।


२. शरीर मेरा नही है :- 
अनंत ब्रह्माण्डों में तिनके जितनी वस्तु भी हमारी नही हैं फिर शरीर हमारा कैसे हुआ ? शरीर संसार के व्यवहार (कर्तव्यपालन) के लिए अपना माना हुआ है । यह वास्तव में अपना नही है । शरीर सर्वथा प्रकृति का है । शरीर पर हमारा कोई वश नहीं चलता । हम अपनी इच्छा के अनुसार शरीर को बदल नही सकते, बूढ़े से जवान तथा रोगी से निरोग नहीं बन सकते । जिस पर वश न चले उसको अपना मान लेना मूर्खता ही है ।

३. शरीर मेरे लिए नही हैं :- 
शरीर आदि वस्तुएँ संसार के काम आती हैं, हमारे काम नहीं। शरीर केवल कर्म करने का साधन है और कर्म केवल संसार के लिए ही होता है । शरीर परिवार, समाज अथवा संसार की सेवा के लिये है अपने लिये है ही नहीं । महिमा शरीर की नही, प्रत्युत विवेक की है । आकृति का नाम मनुष्य नहीं है प्रत्युत विवेक-शक्ति का नाम मनुष्य है । 

“ जय जय श्रीराधे ”

श्रीशिव पञ्चाक्षर स्तोत्रम्

🚩 पवित्र श्रावण मास की हार्दिक शुभकामनाएँ 🚩



नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय । 

नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै ‘न’काराय नमः शिवाय ॥१॥ 
भावार्थ:-
जिनके कंठ में साँपों का हार है, जिनके तीन नेत्र हैं, भस्म ही जिनका अंगराग(अनुलेपन) है; दिशाएँ ही जिनका वस्त्र है [अर्थात् जो नग्न हैं] , उन शुद्ध अविनाशी महेश्वर ‘न’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है |

मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय । 
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै ‘म’काराय नमः शिवाय ॥२॥ 
भावार्थ:-
गंगाजल और चन्दन से जिनकी अर्चना हुई है, मंदार पुष्प तथा अन्यान्य कुसुमों से जिनकी सुन्दर पूजा हुई है, उन नंदी के अधिपति प्रथमगणों के स्वामी महेश्वर ‘म’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है |

शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्दसूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै ‘शि’काराय नमः शिवाय ॥३॥ 
भावार्थ:-
जो कल्याणस्वरूप हैं, पार्वती के मुखकमल को विकसित(प्रसन्न) करने के लिए जो सूर्यस्वरूप हैं, जो दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं, जिनकी ध्वजा में बैल का चिन्ह है, उन शोभाशाली नीलकंठ ‘शि’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है |

वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय ।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै ‘व’काराय नमः शिवाय ॥४॥ 
भावार्थ:-
वसिष्ठ, अगस्त्य और गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियों ने तथा इन्द्रादि देवताओं ने जिनके मस्तक की पूजा की है, चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र हैं, उन ‘व’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है |

यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै ‘य’काराय नमः शिवाय ॥५॥
भावार्थ:-
जिन्होंने यक्षरूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जिनके हाथ में पिनाक है। जो दिव्य सनातनपुरुष हैं, उन दिगंबर देव ‘य’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है |

पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ । 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥६॥
भावार्थ:-
जो शिव के समीप इस शिवपञ्चाक्षर- स्तोत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त करता है और वहाँ शिवजी के साथ आनंदित होता है |



गुरुवार, 9 अगस्त 2018

शास्त्रीय आज्ञाएं

नमो राघवाये,
आप सभी पाठक गणों का बहुत बहुत स्वागत है आध्यात्मिक प्रकाशबिंदु के इस सत्र में। आज के इस सत्र में हम चर्चा करेंगे उस विषय पर जिसके बारे में हमारे सदस्यों ने भी जिज्ञासा व्यक्त की है। 
आज का यह सत्र आधारित है शास्त्रीय आज्ञाओं पर अर्थात क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए - यह सब हम आज आपको बताएँगे इस सत्र में कि इस विषय में हमारे विभिन्न शास्त्र क्या कहते है। 
तो चलिए अपने सत्र को शुरू करते है :-

शास्त्रीय आज्ञाएं :-


१. दोनों हाथों, दोनों पैरों और मुख - इन पांच अंगों को धोकर भोजन करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य दीर्घजीवी होता है।
(पद्म पुराण , सृष्टि ०५१/८८ )
२. गीले पैरों वाला होकर भोजन करे परन्तु गीले पैर सोये नहीं। गीले पैरों वाला होकर भोजन करने मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करता है। 
(मनु स्मृति ०४/७६)

३. गृहस्थी को चाहिए कि वह पहले देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों (अतिथियों), पितरों और घर  देवताओं का पूजन करके पीछे स्वयं भोजनप्रसाद ग्रहण करें।
(महा० ३६/३४-३५)

४. सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, वह उतने ही वर्षो तक अरुन्तुद नरक में यातना भोगता है।  
(देवी भागवत ०९/३५/११-१३)

 ५. झूठा अन्न  किसी को न दे और स्वयं भी ना खाएं। दूसरे का अथवा अपना - किसी का भी जूठा अन्न न खाएं। प्रातः सायं भोजन न करें। बहुत अधिक न खाये और भोजन करके जूठे मुंह कहीं  न जाये। 
(मनु स्मृति ०२/५६)


६. जो स्त्री  के जूठे पात्रों में भोजन करता है, स्त्री का जूठा खाता है तथा स्त्री के साथ एक बर्तन में भोजन करता है , वह मानो  मदिरा का पान करता है। 
(महा० आश्व० ९२)

७. गुरु, देवता और अग्नि के सम्मुख पैर फैलाकर नहीं बैठना चाहिए। 
(स्कन्द पुराण मा० कौ० ४१/१२७)

८. अनेक बार जल पीने से, पान खाने से, दिन में सोने से और स्त्री सहवास से उपवास (व्रत) दूषित एवं खण्डित हो जाता है। 
(अग्नि पुराण १७५/९)

९. व्रत, तीर्थ, अध्ययन तथा श्राद्ध में दुसरे का अन्न नहीं खाना चाहिए क्योकि जिसका अन्न खाया जाएगा उसका फल भी उसी को प्राप्त होगा। 
(निर्णय सिंधु १)

१०. जो मैले वस्त्र धारण करता हो, दाँतों को स्वच्छ नहीं रखता, अधिक भोजन करता है, कठोर वचन बोलता है और सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोता है, वह साक्षात विष्णु भी हो, तो उसे भी लक्ष्मी छोड़ देती है। 
(गरुड़ पुराण, आचार० ११४/३५)

११. गौ, गंगा, गीता, गायत्री और गोविन्द - ये पांचों सनातन धर्म के प्राण है। 

१२. क्षमा, सत्य, दया , दान , शौच, इन्द्रिय - संयम, देवपूजा, अग्निहोत्र, संतोष तथा चोरी न करना - ये दस नियम सम्पूर्ण व्रतों में आवश्यक माने गए है। 

१३. जल, फूल, मूल, दूध, हविष्य (घी), ब्राह्मण की इच्छा पूर्ति, गुरु का वचन तथा औषध - ये आठ व्रत नाशक नहीं हैं। 

१४. स्वयं जाकर दिया गया दान उत्तम, अपने यहाँ बुलाकर दिया गया दान मध्यम और माँगने दिया गया दान अधम होता है परन्तु सेवा कराकर दिया गया दान तो सर्वथा निष्फल ही होता है। 

१५. शिवजी और सूर्य नारायण को शंख से अर्घ्य नहीं देना चाहिए। भगवान विष्णु को शंख से अर्घ्य दिया जा  सकता है।स्वर्ण, चाँदी  और ताम्र पात्र से सभी देवताओं को अर्घ्य दे सकते है। 

१६. दो शिवलिंग, दो शालिग्राम, दो चक्र, दो सूर्य, तीन शक्ति, तीन गणेश, दो शंख की साथ साथ पूजा नहीं करनी चाहिए।

 १७. बिना संकल्प और शास्त्र विधि के सकाम कर्म - पूजन निष्फल होता है। बिना तिल, कुश और तर्पण के पितृ कर्म निष्फल होते है। बिना लाल फूल और चंदन के दुर्गा पूजा निष्फल होती है। बिना मिष्ठान और दक्षिणा के ब्राह्मण भोजन निष्फल है। 

१८. पत्थर पर से उठाकर न तो देवता पर चढ़ाये और ना ही अपने मस्तक पर लगाएं। चंदन घिसकर किसी पात्र में रखे और देव पर चढाने के बाद प्रसाद रूप में अपने मस्तक पर लगाए। सौभाग्यवती स्त्रियाँ इसी प्रकार रोली या कुमकुम अपने मस्तक पर लगाएं। 

१९. जप के समय माला गोमुखी या वस्त्र में ढँककर रखें। जप करते समय हिलना, ऊँघना, बोलना नहीं चाहिए। माला यदि हाथ से गिर जाये तो आचमन करके दोबारा प्रारम्भ करना चाहिए। 
इसी प्रकार यदि बोलना आवश्यक हो जाये तो भी आचमन करके दोबारा जप प्रारम्भ करना चाहिए। 

२०. लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को सिरस, धतूरा, मातुलुंगी, मालती, सेमल  और कनेर के फूलों तथा अक्षतों के द्वारा भगवान विष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिए। केतकी (केवड़ा), चम्पा, चमेली, मालती, कुन्द, सिरस, जूही, पलाश, मौलश्री, लाल गुड़हल, मोतिया के पुष्प भगवान शंकर को नहीं चढाने चाहिए। तुलसी गणेश जी को नहीं चढ़ानी चाहिए। दूर्वा और आक (मदार) देवी को अर्पण नहीं करने चाहिए। पत्र, पुष्प, फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ाना चाहिए। बिल्व पत्र उल्टा करके भगवान शिव जी को अर्पण करना चाहिए। 

वस्तुतः,
शास्त्रों में मनुष्य के द्वारा करने योग्य एवं वर्जित कार्य एवं उनकी कार्यविधि का विस्तार से वर्णन मिलता है। उन सभी में से महत्वपूर्ण  का चयन करके उनका यहां उल्लेख कर पाना दुष्कर कार्य है फिर भी उनमे से कुछ को इस सत्र में बताया गया है। 
उम्मीद है कि  इस सत्र से आप के संदेह का निवारण होगा एवं पूजन कार्यो में वर्जित तथ्यों से आप सभी अवगत हुए होंगे। इस प्रकार यह सत्र समाप्त होता है। जल्द ही एक नवीन सत्र के साथ आप सभी के समक्ष प्रस्तुत होंगे। 


तब तक के लिए

नमो राघवाये 



आपका मित्र
अधम शिरोमणि 

बुधवार, 25 जुलाई 2018

सबके भाग्य का फल अलग क्यो ?

नमो राघवाये,

-: एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके कर्म एवम भाग्य अलग अलग क्यों :-

   एक प्रेरक कथा ...

एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया-

मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना, किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ..?
इसका क्या कारण है ?

राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये ..
अचानक एक वृद्ध खड़े हुये बोले - महाराज आपको यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है..

राजा ने घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार ( गरमा गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं ।
राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा “तेरे प्रश्न का उत्तर आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं , वे दे सकते हैं ।”

राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा। राजा हक्का बक्का रह गया ,दृश्य ही कुछ ऐसा था, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे।

राजा को महात्मा ने भी डांटते हुए कहा “मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास समय नहीं है। आगे आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर दे सकता है !”

राजा बड़ा बेचैन हुआ, बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न !

उत्सुकता प्रबल थी..
राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर उस गाँव में पहुंचा । गाँव में उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही।
जैसे ही बच्चा पैदा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया ।

राजा को देखते ही बालक हँसते हुए बोलने लगा -
राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है, किन्तु अपना उत्तर सुन लो –
तुम, मैं और दोनों महात्मा सात जन्म पहले चारों भाई राजकुमार थे..
एक बार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में तीन दिन तक भूखे प्यासे भटकते रहे ।
अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली । हमने उसकी चार बाटी सेंकी।

अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा वहां आ गये..
अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा –
“बेटा, मैं दस दिन से भूखा हूँ, अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो, मुझ पर दया करो, जिससे मेरा भी जीवन बच जाय ...
इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले..
तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या खाऊंगा आग ...? चलो भागो यहां से ….।

वे महात्मा फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही..
 किन्तु उन भईया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि..
 बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो क्या मैं अपना मांस नोचकर खाऊंगा ?

भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये । मुझसे भी बाटी मांगी…
किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि
चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ …?

हे राजन ! अंतिम आशा लिये वो महात्मा आपके पास भी आये और दया की याचना की..
दया करते हुये ख़ुशी से आपने अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी ।
बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और बोले..
तुम्हारा भविष्य , तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा ।

बालक ने कहा “इस प्रकार उस घटना के आधार पर हम अपना अपना भोग, भोग रहे हैं”
और वो बालक मर गया ..!!

यही रहस्य है इस मृत्युलोक का
धरती पर एक समय में अनेकों फल-फूल खिलते हैं, किन्तु सबके रूप, गुण, आकार-प्रकार, स्वाद भिन्न होते हैं ..।

राजा ने माना कि शास्त्र भी तीन प्रकार के है :-
१. ज्योतिष शास्त्र,
२. कर्तव्य शास्त्र और
३. व्यवहार शास्त्र

सभी जातक सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं..
यही है जीवन...


गलत पासवर्ड से एक छोटा सा मोबाइल नही खुलता..
तो सोचिये ..
गलत कर्मो से जन्नत के दरवाजे कैसे खुलेंगे ..”


इसी सुंदर विचार के साथ
नमो राघवाये

बुधवार, 30 मई 2018

मीरा चरित्र - भाग २०

॥जय श्री राम॥

॥ मीरा चरित्र - भाग २०

क्रमशः

मीरा ससुराल में समय समय पर बीच में सबके चरण स्पर्श कर आती, पर कहीं अधिक देर तक न ठहर पाती क्योंकि इधर ठाकुर जी के भोग का समय हो जाता ।फिर सन्धया में वह जोशी जी से शास्त्र -पुराण सुनती । महलों में मीरा के सबसे अलग थलग रहने पर आलोचना होती , पर अगर कोई मीरा को स्वयं मिलने पधारता ,तो वह अतिशय स्नेह और अपनत्व से उनकी आवभगत करती ।

श्रावण आया । तीज का त्योहार । चित्तौड़गढ़ के महलों में शाम होते ही त्यौहार की हलचल आरम्भ हो गई । सुन्दर झूला डाला गया । पूरा परिवार एक ही स्थान पर एकत्रित हुआ । बारी बारी से सब जोड़े से झूले पर बैठते , और सकुचाते ,लजाते एक दूसरे का नाम लेते ।

भोजराज और मीरा की भी क्रम से बारी आई । महाराणा और बड़े लोग भोजराज का संकोच देख थोड़ा पीछे हट गये । भाई रत्नसिंह ने आग्रह किया , यदि आपने विलम्ब किया तो मैं उतरने नहीं दूँगा । शीघ्र बता दीजिए भाभीसा का नाम !

मेड़तिया घर री थाती मीराँ आभ रो फूल (आकाश का फूल अर्थात ऐसा पुष्प जो स्वयं में दिव्य और सुन्दर तो हो पर अप्राप्य हो ।)
बस अब तो ?
रत्नसिंह भाई के शब्दों पर विचार ही करते रह गये ।मीरा को स्त्रियों ने घेरकर पति का नाम पूछा तो उसने मुस्कुराते ,लजाते हुए बताया
राजा है नंदरायजी जाँको गोकुल गाँम ।
जमना तट रो बास है गिरधर प्यारो नाम ॥

यह क्या कहा आपने ? हम तो कुँवरसा का नाम पूछ रही है ।

इनका नाम तो भोजराज है ।बस, अब मैं जाऊँ ? मीरा अपने महल की तरफ चल पड़ी ।
उसके मन में अलग सी तरंग उठ रही थी । नन्हीं नन्हीं बूँदे पड़ने लगी ।वह गुनगुनाने लगी..

हिडोंरो पड़यो कदम की डाल,
म्हाँने झोटा दे नंदलाल ॥

भक्तों के श्रावण का भावरस व्यवहारिक जगत से कितना अलग होता है ।उन्हें प्रकृति की प्रत्येक क्रिया में ठाकुर का ही कोई संकेत दिखाई देता है ।दूर कहीं पपीहा बोला तो मीरा को लगा मानो वह  पिया पिया बोल वह उसको चिढ़ा रहा हो ।पिया शब्द सुनते ही जैसे आकाश में ही नहीं उसके ह्रदय में भी दामिनी लहरा गई

पपीहरा काहे मचावत शोर ।
पिया पिया बोले जिया जरावत मोर॥
अंबवा की डार कोयलिया बोले रहि रहि बोले मोर।
नदी किनारे सारस बोल्यो मैं जाणी पिया मोर॥
मेहा बरसे बिजली चमके बादल की घनघोर ।
मीरा के प्रभु वेेग दरसदो मोहन चित्त के चोर ॥

वर्षा की फुहार में दासियों के संग मीरा भीगती महल पहुँची ।उसके ह्रदय में आज गिरधर के आने की आस सी जग रही है ।वे कक्ष में आकर अपने प्राणाराध्य के सम्मुख बैठ गाने लगी .

बरसे बूँदिया सावन की ,
सावन की मनभावन की ।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा,
भनक सुनी हरि आवन की ।
उमड़ घुमड़ चहुँ दिसि से आयो,
दामण दमके झर लावन की॥
नान्हीं नान्हीं बूँदन मेहा बरसै,
सीतल पवन सोहावन की ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
आनँद मंगल गावन की ॥

श्रावण की मंगल फुहार ने प्रियतम के आगमन की सुगन्ध चारों दिशाओं में व्यापक कर दी ।मीरा को क्षण क्षण प्राणनाथ के आने का आभास होता -वह प्रत्येक आहट पर चौंक उठती ।वह गिरधर के समक्ष बैठे फिर गाने लगी .

सुनो हो मैं हरि आवन की अवाज।
महल चढ़ चढ़ जोऊँ मेरी सजनी,
कब आवै महाराज ।
सुनो हो मैं हरि आवन की अवाज॥
दादर मोर पपइया बोलै ,
कोयल मधुरे साज ।
उमँग्यो इंद्र चहूँ दिसि बरसै,
दामणि छोड़ी लाज ॥
धरती रूप नवा-नवा धरिया,
इंद्र मिलण के काज ।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी,
बेग मिलो सिरताज॥

भजन पूरा करके मीरा ने जैसे ही आँखें उघाड़ी , वह हर्ष से बावली हो उठी।सम्मुख चौकी पर श्यामसुन्दर बैठे उसकी ओर देखते हुये मंद मंद मुस्कुरा रहे थे ।मीरा की पलकें जैसे झपकना भूल गई ।कुछ क्षण के लिए देह भी जड़ हो गई।फिर हाथ बढ़ा कर चरण पर रखा यह जानने के लिए कि कहीं यह स्वप्न तो नहीं ?

उसके हाथ पर एक अरूण करतल आ गया । उस स्पर्श . में मीरा जगत को ही भूल गई । बाईसा हुकम !मंगला ने एकदम प्रवेश किया तो स्वामिनी को यूँ किसी से बात करते ठिठक गई ।

मीरा ने पलकें उठाकर उसकी ओर देखा । मंगला ! आज प्रभु पधारे है ।जीमण (भोजन ) की तैयारी कर ।चौसर भी यही ले आ ।तू महाराज कुमार को भी निवेदन कर आ ।

मीरा की हर्ष-विह्वल दशा देखकर मंगला प्रसन्न भी हुई और चकित भी ।उसने शीघ्रता से दासियों में संदेश प्रसारित कर दिया ।घड़ी भर में तो मीरा के महल में गाने -बजाने की धूम मच गई ।चौक में दासियों को नाचते देख भोजराज को आश्चर्य हुआ ।

मंगला से पूछने पर वह बोली , कुंवरसा ! आज प्रभु पधारे है ।

भोजराज चकित से गिरधर गोपाल के कक्ष की ओर मुड़ गये ।वहां द्वार से ही मीरा की प्रेम-हर्ष-विह्वल दशा दर्शन कर वह स्तम्भित से हो गये ।मीरा किसी से हँसते हुये बात कर र ही थी-  बड़ी कृपा ..की प्रभु ..आप पधारे ..मेरी तो आँखें पथरा गई थी प्रतीक्षा में ।

भोजराज सोच रहे थे , प्रभु आये है, अहोभाग्य ! पर हाय! मुझे क्यों नहीं दर्शन नहीं हो रहे ?
मीरा की दृष्टि उनपर पड़ी ।
पधारिये महाराजकुमार ! देखिए , मेरे स्वामी आये है ।ये है द्वारिकाधीश , मेरे पति ।और स्वामी , यह है चित्तौड़गढ़ के महाराजकुमार ,भोजराज , मेरे सखा ।

मुझे तो यहाँ कोई दिखाई नहीं दे रहा । भोजराज ने सकुचाते हुए कहा ।
मीरा फिर हँसते हुये बोली आप पधारे ! ये फरमा रहे है कि आपको अभी दर्शन होने में समय है । भोजराज असमंजस में कुछ क्षण खड़े रहे फिर अपने शयनकक्ष में चले गये ।मीरा गाने लगी

आज तो राठौड़ीजी महलाँ रंग छायो।
आज तो मेड़तणीजी के महलाँ रंग छायो।
कोटिक भानु हुवौ प्रकाश जाणे के गिरधर आया॥
सुर नर मुनिजन ध्यान धरत हैं वेद पुराणन गाया
मीरा के प्रभु गिरधर नागर घर बैठयौं पिय पाया॥

नमो राघवाय

गुरुवार, 15 मार्च 2018

सर्वोत्कृष्ट भक्त

सर्वोत्कृष्ट भक्त – श्री हनुमान
श्रीरामभक्त हनुमान जी के जीवन में अभिमान का तो लेशमात्र भी नहीं है |
जब वे माता श्रीजानकीजी की सुध लेकर आये और भगवान् से मिले, तब भगवान् श्रीराम ने उनसे पूछा –
“ कहु कपि रावन पालित लंका |
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ||”

(मानस ५.३३.३)
"हनुमान जी ! बताओ,रावण द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बांके किले को किस प्रकार जलाया ?"
तब श्री हनुमान जी भगवान् श्रीराम को प्रसन्नमन जान अभिमान रहित वचन बोले –
“साखामृग कै बड़ि मनुसाई | साखा तें साखा पर जाई ||
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा | निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ||
सो सब तव प्रताप रघुराई | नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ||”

(मानस ५|३३|४-५)
( प्रभो ! बन्दर का केवल एकमात्र यही पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है | मैंने जो समुद्र लांघकर सोने की नगरी जलाई और राक्षसों को मारकर अशोकवन का विध्वंस किया, वह तो केवल आपका ही प्रताप एवं प्रसाद है | नाथ इसमें मेरे सामर्थ्य की कोई बात ही नहीं है |)
 
सेवक को अपने स्वामी के गुण-गौरव एवं बल-पुरुषार्थ आदि पर पूर्ण भरोसा रखते हुए सदा यह ध्यान रखना चाहिए कि मैं ऐसे स्वामी का सेवक हूँ , कहीं मेरे कारण उनके गुण-गौरव पर किसी प्रकार की आँच न आ जाए , ऐसा अभिमान तो सेवकों को होना ही चाहिए , जैसे –
“अस अभिमान जाइ जनि भोरे |
मैं सेवक रघुपति पति मोरे |”

(मानस ३|११|११)
श्रीहनुमानजी का अपना कोई भी स्वार्थ नहीं है | वे केवल अपने प्रभु की सेवा एवं प्रसन्नता में ही प्रसन्नता मानते हैं | ठीक ही है , सच्चा भक्त तो प्रभु की प्रसन्नता में ही अपनी प्रसन्नता मानता है | इसी को तत्सुख-सुखित्वभाव कहा जाता है | यही सर्वोत्कृष्ट भक्त का लक्षण है !!