शनिवार, 30 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १४

॥जय श्री राम॥

वीरकुवंरी जी एक बार फिर मीरा के तर्क के आगे चुप हो चली गई ।मीरा श्याम कुन्ज में अकेली रह गई । आजकल दासियों को भी कामों की शिक्षा दी जा रही है क्योंकि उन्हें भी मीरा के साथ चितौड़ जाना है ।मीरा ने एकान्त पा फिर आर्त मन से प्रार्थना आरम्भ की

तुम सुनो दयाल म्हाँरी अरजी ।
भवसागर में बही जात हूँ काढ़ो तो थाँरी मरजी।
या संसार सगो नहीं कोई साँचा सगा रघुबर जी॥
मात पिता अर कुटुम कबीलो सब मतलब के गरजी।
मीरा की प्रभु अरजी सुण लो, चरण लगावो थाँरी मरजी॥

मीरा श्याम कुन्ज में एकान्त में गिरधर के समक्ष बैठी है ।आजकल दो ही भाव उस पर प्रबल होते है याँ तो ठाकुर जी की करूणा का स्मरण कर उनसे वह कृपा की याचना करती है और याँ फिर अपने ही भाव- राज्य में खो अपने श्यामसुन्दर से बैठे बातें करती रहती है ।

मीरा गाते गाते अपने भाव जगत में खो गई -वह सिर पर छोटी सी कलशी लिए यमुना जल लेकर लौट रही है ।उसके तृषित नेत्र इधरउधर निहार कर अपना धन खोज रहे है । वो यहीं कहीं होंगे -आयेंगे -नहीं आयेंगे ..बस इसी ऊहापोह में धीरेधीरे चल रही थी कि पीछे से किसी ने मटकी उठा ली ।उसने अचकचाकर ऊपर देखा तो कदम्ब पर एक हाथ से डाल पकड़े और एक हाथ में कलशी लटकाये मनमोहन बैठे हँस रहे है ।लाज के मारे उसकी दृष्टि ठहर नहीं रही ।लज्जा नीचे और प्रेम उत्सुकता ऊपर देखने को विवश कर रही है ।वे एकदम वृक्ष से उसके सम्मुख कूद पड़े ।वह चौंककर चीख पड़ी , और साथ ही उन्हें देख लजा गई ।

डर गई न ? उन्होंने हँसते हुए पूछा और हाथ पकड़ कर कहा - चल आ, थोड़ी देर बैठकर बातें करें ।सघन वृक्ष तले एक शिला पर दोनों बैठ गये । मुस्कुरा कर बोले , तुझे क्या लगा कोई वानर कूद पड़ा है क्या ? अभी पानी भरने का समय है क्या ? दोपहर में पता नहीं घाट नितान्त सूने रहते है ।जो कोई सचमुच वानर आ जाता तो ?

तुम हो न । उसके मुख से निकला ।
मैं क्या यहाँ ही बैठा ही रहता हूँ ? गईयाँ नहीं चरानी मुझे ?

एक बात कहूँ ?  मैने सिर नीचा किए हुये कहा ।
एक नहीं सौ कह , पर माथा तो ऊँचा कर ! तेरो मुख ही नाय दिख रहो मोकू । उन्होंने मुख ऊँचा किया तो फिर लाज ने आ घेरा ।
अच्छो -अच्छो मुख नीचो ही रहने दे ।कह, का बात है ?
तुम्हें कैसे प्रसन्न किया जा सकता है ? बहुत कठिनाई से मैंने कहा ।
तो सखी ! तोहे मैं अप्रसन्न दीख रहयो हूँ ।
नहीं  मेरा वो मतलब नहीं था . ।सुना है . तुम प्रेम से वश में होते हो ।
मोको वश में करके क्या करेगी सखी ! नाथ डालेगी कि पगहा बाँधेगी ? मेरे वश हुये बिना तेरो कहा काज अटक्यो है भला ?
सो नहीं श्यामसुन्दर !
तो फिर क्या ? कब से पूछ रहो हूँ ।तेरो मोहढों (मुख) तो पूरो खुले हु नाय।एकहु बात पूरी नाय निकसै ।अब मैं भोरो- भारो कैसे समझूँगो ?
सुनो श्यामसुन्दर ! मैंने आँख मूँदकर पूरा ज़ोर लगाकर कह दिया - मुझे तुम्हारे चरणों में अनुराग चाहिए ।
सो कहा होय सखी ? उन्होंने अन्जान बनते हुये पूछा ।
अपनी विवशता पर मेरी आँखों में आँसू भर आये ।घुटनों में सिर दे मैं रो पड़ी ।
सखी , रोवै मति ।उन्होंने मेरे आँसू पौंछते हुये पूछा -और ऐसो अनुराग कैसो होवे री ?
सब कहवें , उसमें अपने सुख की आशा  इच्छा नहीं होती।
तो और कहा होय ? श्यामसुन्दर ने पूछा ।
बस तुम्हारे सुख की इच्छा ।
और कहा अब तू मोकू दुख दे रही है ?ऐसा कह हँसते हुये मेरी मटकी लौटाते हुये बोले , ले अपनी कलशी ! बावरी कहीं की !
और वह वन की ओर दौड़ गये ।मैं वहीं सिर पर मटकी ठगी सी बैठी रही ।

विवाह के उत्सव घर में होने लगे- हर तरफ कोलाहल सुनाई देता था । मेड़ते में हर्ष समाता ही न था ।मीरा तो जैसी थी , वैसी ही रही । विवाह की तैयारी में मीरा को पीठी (हल्दी) चढ़ी ।उसके साथ ही दासियाँ गिरधरलाल को भी पीठी करने और गीत गाने लगी ।

मीरा को किसी भी बात का कोई उत्साह नहीं था । किसी भी रीति रिवाज़ के लिए उसे श्याम कुन्ज से खींच कर लाना पड़ता था ।जो करा लो , सो कर देती ।न कराओ तो गिरधर लाल के वागे (पोशाकें) , मुकुट ,आभूषण संवारती , श्याम कुन्ज में अपने नित्य के कार्यक्रम में लगी रहती ।खाना पीना , पहनना उसे कुछ भी नहीं सुहाता ।श्याम कुन्ज अथवा अपने कक्ष का द्वार बंद करके वह पड़ी -पड़ी रोती रहती ।

मीरा का विरह बढ़ता जा रहा है ।उसके विरह के पद जो भी सुनता , रोये बिना न रहता। किन्तु सुनने का , देखने का समय ही किसके पास है ? सब कह रहे है कि मेड़ता के तो भाग जगे है कि हिन्दुआ सूरज का युवराज इस द्वार पर तोरण वन्दन करने आयेगा ।उसके स्वागत में ही सब बावले हुये जा रहे है ।कौन देखे-सुने कि मीरा क्या कह रही है ?

वह आत्महत्या की बात सोचती

ले कटारी कंठ चीरूँ कर लऊँ मैं अपघात।
आवण आवण हो रह्या रे नहीं आवण की बात ॥

किन्तु आशा मरने नहीं देती । जिया भी तो नहीं जाता , घड़ी भर भी चैन नहीं था । मीरा अपनी दासियों -सखियों से पूछती कि कोई संत प्रभु का संदेशा लेकर आये है ? उसकी आँखें सदा भरी भरी रहती,मीरा का विरह बढ़ता जा रहा है ।उसके विरह के पद जो भी सुनता , रोये बिना न रहता ।

कोई कहियो रे प्रभु आवन की,
आवन की मनभावन की ॥
आप न आवै लिख नहीं भेजे ,
बान पड़ी ललचावन की ।
ऐ दोऊ नैण कह्यो नहीं मानै,
नदिया बहै जैसे सावन की॥
कहा करूँ कछु बस नहिं मेरो,
पाँख नहीं उड़ जावन की ।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे ,
चेरी भई तेरे दाँवन की॥
कोई कहियो रे प्रभु आवन की,
आवन की मनभावन की..

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

बुधवार, 27 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १३

॥जय श्री राम॥

भोजराज श्याम कुन्ज से प्रतिज्ञा कर अपने डेरे लौट आये ।वहाँ आकर कटे वृक्ष की भाँति पलंग पर जा पड़े ।पर चैन नहीं पड़ रहा था ।कमर में बंधी कटार चुभी , तो म्यान से बाहर निकाल धार देखते हुये अनायास ही अपने वक्ष पर तान ली। एक क्षण में ही लगा जैसे बिजली चमकी हो ।अंतर में मीरा आ खड़ी हुईं ।उदास मुख ,कमल- पत्र पर ठहरे ओस-कण से आँसू गालों पर चमक रहे है ।जलहीन मत्स्या (मछली) सी आकुल दृष्टि मानो कह रही हो  आप ऐसा करेंगे -तो मेरा क्या होगा ?

भोजराज ने तड़पकर कटार दूर फैंक दी ।मेवाड़ का उत्तराधिकारी , लाखों वीरों का अग्रणी, जिसका नाम सुनकर ही शत्रुओं के प्राण सूख जाते है और दीन -दुखी श्रद्धा से जयजयकार कर उठते है ,जिसे देख माँ की आँखों में सौ- सौ सपने तैर उठते है वही मेदपाट का भावी नायक आज घायल शूर की भाँति धरा पर पड़ा है ।आशा -अभिलाषा और यौवन की मानों अर्थी उठ गई हो ।उनका धीर -वीर ह्रदय प्रेम पीड़ा से कराह उठा ।उन्हें इस दुख में भाग बाँटने वाला कोई दिखाई नहीं देता ।उनके कानों में मीरा की गिरधर को करूण पुकार

म्हाँरा सेठ बोहरा , ब्याज मूल काँई जोड़ो।
गिरधर लाल प्रीति मति तोड़ो ॥

गूँज रही है ।हाय ! कैसा दुर्भाग्य है इस अभागे मन का ? कहाँ
जा लगा यह ? जहाँ इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं ।पाँव तले रूँदने का भाग्य लिखाकर आया बदनसीब ! मीरा.. कितना मीठा नाम है यह, जैसे अमृत से सिंचित हो ।अच्छा इसका अर्थ क्या है भला ?किससे पूछुँ? अब तो .. उन्हीं से पूछना होगा ।उनके .चित्तौड़ आने पर । उनके होंठों पर मुस्कान , ह्रदय में विद्युत तरंग थिरक गई ।वे मीरा से मानों प्रत्यक्ष बात करने लगे - मुझे केवल तुम्हारे दर्शन का अधिकार चाहिए तुम प्रसन्न रहो.तुमहारी सेवा का सुख पाकर यह भोज निहाल हो जायेगा ।मुझे और कुछ नहीं चाहिए  कुछ भी नहीं ।

अगले दिन ही भोजराज ने गिरिजा बुआ से और वीरमदेव जी से घर जाने की आज्ञा माँगी ।गिरिजा जी ने भतीजे का मुख थोड़ा मलिन देख पूछा तो भोजराज ने हँस कर बात टाल दी ।हाँलाकि वे मेड़ता में सबका सम्मान करते पर अब उनका यहां मन न लग रहा था । भोजराज चित्तौड़ आ गये पर उनका मन अब यहाँ भी नहीं लगता था ।न जाने क्यों अब उन्हें एकान्त प्रिय लगने लगा ।एकान्त मिलते ही उनका मन श्याम कुन्ज में पहुँच जाता ।रोकते- रोकते भी वह उन बड़ी -बड़ी झुकी आँखों , स्वर्ण गौर वर्ण, कपोलों पर ठहरी अश्रु बूँदों, सुघर नासिका , उसमें लगी हीरक कील , कानों में लटकती झूमर , वह आकुल व्याकुल दृष्टि ,उस मधुर कंठ-स्वर के चिन्तन में खो जाता ।वे सोचते ,एक बार भी तो उसने आँख उठाकर नहीं देखा मेरी ओर ।पर क्यों देखे ? क्या पड़ी है उसे ? उसका मन तो अपने अराध्य गिरधर में लगा है ।यह तो तू ही है , जो अपना ह्रदय उनके चरणों में पुष्प की तरह चढ़ा आया है, जहाँ स्वीकृति के कोई आसार भी नहीं और न ही आशा ।


मेड़ता से गये पुरोहित जी के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहित और उनकी पत्नी मीरा को देखने आये ।राजमहल में उनका आतिथ्य सत्कार हो रहा है ।पर मीरा को तो जैसे वह सब दीखकर भी दिखाई नहीं दे रहा है ।उसे न तो कोई रूचि है न ही कोई आकर्षण ।

दूसरे दिन माँ सुन्दर वस्त्राभूषण लेकर एक दासी के साथ मीरा के पास आई ।आग्रह से स्थिति समझाते हुये मीरा को सब पहनने को कहा ।मीरा ने बेमन से कहा ,आज जी ठीक नहीं है , भाबू ! रहने दीजिये , किसी और दिन पहन लूँगी । माँ खिन्न हो कर उठकर चली गई ।तो मीरा ने उदास मन से तानपुरा उठाया और गाने लगी .

राम नाम मेरे मन बसियो रसियो राम रिझाऊँ ए माय ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर रज चरणन की पाऊँ ए माय ॥

भजन विश्राम कर वह उठी ही थी कि माँ और काकीसा के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहित जी की पत्नी ने श्याम कुन्ज में प्रवेश किया ।मीरा उनको यथायोग्य प्रणाम कर बड़े संकोच के साथ एक ओर हटकर ठाकुर जी को निहारती हुईं खड़ी हो गई । पुरोहितानी जी ने तो ऐसे रूप की कल्पना भी न की थी ।वह , लज्जा से सकुचाई मीरा के सौंदर्य से विमोहित सी हो गई और उनसे प्रणाम का उत्तर ,आशीर्वाद भी स्पष्ट रूप से देते न बना ।वे कुछ देर मीरा को एकटक निहारते ही बैठी रही ।दासियों ने आगे बढ़िया चरणामृत प्रसाद दिया ।कुछ समय और यूँ ही मन्त्रमुग्ध बैठी फिर काकीसा के साथ चली गई । माँ ने सबके जाने के बाद फिर मीरा से कहा , तेरा क्या होगा , यह आशंका ही मुझे मारे डालती है ।अरे विनोद में कहे हुये भगवान से विवाह करने की बात से क्या जगत का व्यवहार चलेगा ? साधु-संग ने तो मेरी कोमलांगी बेटी को बैरागन ही बना दिया है ।मैं अब किससे जा कर बेटी के सुख की भिक्षा माँगू?

माँ आप क्यों दुखी होती है ? सब अपने भाग्य का लिखा ही पाते है ।यदि मेरे भाग्य में दुख लिखा है तो क्या आप रो -रो कर उसे सुख में पलट सकती है ?तब जो हो रहा है उसी में संतोष मानिये ।मुझे एक बात समझ में नहीं आती भाबू ! जो जन्मा है वह मरेगा ही , यह बात तो आप अच्छी तरह जानती है ।फिर जब आपकी पुत्री को अविनाशी पति मिला है तो आप क्यों दुख मना रही है ?आपकी बेटी जैसी भाग्यशालिनी और कौन है , जिसका सुहाग अमर है ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १२

॥जय श्री राम॥

अश्रुसिक्त मुख और भरे कण्ठ से मीरा ह्रदय की बात , संगीत के सहारे अपने आराध्य से कह रही थी ।ठाकुर को उन्हीं के गुणों का वास्ता दे कर , उन्हें ही एकमात्र आश्रय मान कर ,अत्यन्त दीन भाव से कृपा की गुहार लगा रही थी ।मीरा अपने भाव में इतनी तन्मय थी कि किसी के आने का उसे ज्ञात ही नहीं हुआ ।

एक दृष्टि मूर्ति पर डालकर भोजराज ने उन्हें प्रणाम किया ।
गायिका पर दृष्टि पड़ी तो देखा कि उसके नेत्रों से अविराम आँसू बह रहे थे जिससे बरबस ही मीरा का फूल सा मुख कुम्हला सा गया था ।यह देख कर युवक भोजराज ने अपना आपा खो दिया ।भजन पूरा होते ही जयमल ने चलने का संकेत किया ।तब तक मीरा ने इकतारा एक ओर रख आँखें खोली और तनिक दृष्टि फेर पूछा , कौन है ? भोजराज को पीछे ही छोड़ कर आगे बढ़ कर स्नेह युक्त स्वर में जयमल बोले , मैं हूँ जीजा । समीप जाकर और घुटनों के बल पर बैठकर अंजलि में बहन का आँसुओं से भीगा मुख लेते हुए आकुल स्वर में पूछा ,किसने दुख दिया आपको ?  बस भाई के तो पूछने की देर भर थी कि मीरा के रूदन का तो बाँध टूट पड़ा ।वह भाई के कण्ठ लग फूट फूट कर रोने लगी ।

आप मुझसे कहिये तो जीजा, जयमल प्राण देकर भी आपको सुखी कर सके तो स्वयं को धन्य मानेगा । दस वर्ष का बालक जयमल जैसे आज बहन का रक्षक हो उठा । मीरा क्या कहे ,कैसे कहे ? उसका यह दुलारा छोटा भाई कैसे जानेगा कि प्रेम -पीर क्या होती है ?

जयमल जब भी बहन के पास आता याँ कभी महल में रास्ते में मिल जाता तो मीरा कितनी ही आशीष भाई को देती न थकती जीवता रीजो जग में , काँटा नी
भाँगे थाँका पग में ! और  हूँ , बलिहारी म्हाँरा वीर थाँरा ई रूप माथे । सदा हँसकर सामने आने वाली बहन को यूँ रोते देख जयमल तड़प उठा , एक बार , जीजा आप कहकर तो देखो, मैं आपको यूँ रोते नहीं देख सकता ।

भाई ! आप मुझे बचा लीजिए , बचा लीजिए , मीरा भरे कण्ठ से हिल्कियों के मध्य कहने लगी  सभी लोग मुझे मेवाड़ के महाराज कुँवर से ब्याहना चाहते है ।स्त्री का तो एक ही पति होता है भाई ! अब गिरधर गोपाल को छोड़ ये मुझे दूसरे को सौंपना चाहते है ।मुझे इस पाप से बचा लीजिए भाई .. आप तो इतने वीर है मुझे आप तलवार के घाट उतार दीजिए मुझसे यह दुख नहीं सहा जाता ..मैं आपसे .मेरी राखी का मूल्य माँग रही हूँ ..भगवान आपका .भला करेंगे । जयमल बहन की बात सुन कर सन्न रह गये । एक तरफ़ बहन का दुख और दूसरी तरफ़ अपनी असमर्थता ।जयमल दुख से अवश होकर बहन को बाँहो में भर रोते हुये बोले , मेरे वीरत्व को धिक्कार है कि आपके किसी काम न आया ।..यह हाथ आप पर उठें, इससे पूर्व जयमल के प्राण देह न छोड़ देंगे ? मुझे क्षमा कर दीजिये जीजा । मेरे वीरत्व को धिक्कार है कि आपके किसी काम न आया. ।

दोनों भाई बहन को भावनाओं में बहते ,रोते ज्ञात ही नहीं हुआ कि श्याम कुन्ज के द्वार पर एक पराया एवं सम्माननीय अतिथि खड़ा आश्चर्य से उन्हें देख और सुन रहा है । श्याम कुन्ज में मीरा और जयमल , दोनों भाई बहन एक दूसरे के कण्ठ लगे रूदन कर रहे है ।जयमल स्वयं को अतिश य असहाय मान रहे है जो बहन की कैसे भी सहायता करने में असमर्थ पा रहेे है ।

भोजराज श्याम कुन्ज के द्वार पर खड़े उन दोनों की बातें
आश्चर्य से सुन रहे थे ।वे थोड़ा समीप आ ही सीधे मीरा को ही सम्बोधित करते हुए बोले , देवी ! उनका स्वर सुनते ही दोंनो ही चौंक कर अलग हो गये ।एक अन्जान व्यक्ति की उपस्थिति से बेखबर मीरा ने मुँह फेर कर उघड़ा हुआ सिर ढक लिया ।पलक झपकते ही वह समझ गई कि यह अन्जान , तनिक दुख और गरिमा युक्त स्वर और किसी का नहीं, मेवाड़ के राजकुमार का है ।थोड़े संकोच के साथ उसने उनकी ओर पीठ फेर ली ।

देवी ! आत्महत्या महापाप है ।और फिर बड़ो की आज्ञा का उल्लंघन भी इससे कम नहीं ।आपने जिस चित्तौड़ के राजकुवंर का नाम लिया , वह अभागा अथवा सौभाग्यशाली जन आपके सामने उपस्थित है ।मुझ भाग्यहीन के कारण ही आप जैसी भक्तिमती कुमारी को इतना परिताप सहना पड़ रहा है ।उचित तो यह है कि मैं ही देह छोड़ दूँ ताकि सारा कष्ट ही कट जाये , किन्तु क्या इससे आपकी समस्या सुलझ जायेगी ? मैं नहीं तो मेरा भाई  याँ फिर कोई ओर राजपूतों में वरों की क्या कमी ? हम लोगों का अपने गुरूजनों पर बस नहीं चलता ।वे भी क्या करें ? क्या कभी किसी ने सुना है कि बेटी बाप के घर कुंवारी बैठी रह गई हो ? पीढ़ियों से जो होता आया है , उसी के लिए तो सब प्रयत्नशील है ।

भोजराज ने अत्यंत विनम्रता से अपनी बात समझाते हुये कहा ,हे देवी ! कभी किसी के घर आप जैसी कन्याएँ उत्पन्न हुईँ है कि कोई अन्य मार्ग उनके लिए निर्धारित हुआ हो ? मुझे तो इस उलझन का एक ही हल समझ में आया है ।और वो यह कि मातापिता और परिवार के लोग जो करे , सो करने दीजिए और अपना विवाह आप ठाकुर जी के साथ कर लीजिए ।यदि ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया तो. मैं वचन देता हूँ कि केवल दुनिया की दृष्टि में बींद बनूँगा आपके लिए नहीं।जीवन में कभी भी आपकी इच्छा के विपरीत आपकी देह को स्पर्श भी नहीं करूँगा ।आराध्य मूर्ति की तरह  ।

भोजराज का गला भर आया ।एक क्षण रूककर वे बोले , आराध्य मूर्ति की भाँति आपकी सेवा ही मेरा कर्तव्य रहेगा ।आपके पति गिरधर गोपाल मेरे स्वामी और आप  आप. मेरी स्वामिनी । भीष्म प्रतिज्ञा कर , भोजराज पल्ले से आँसू पौंछते हुये पलट करके मन्दिर की सीढ़ियाँ उतर गये ।एक हारे हुये जुआरी की भाँति पाँव घसीटते हुये वे पानी की नाली पर आकर बैठे ।दोनों हाथों से अंजलि भर भर करके मुँह पर पानी के छींटे मारने लगे ताकि आते हुये जयमल से अपने आँसु और उनकी वज़ह छुपा पायें।पर मन ने तो आज नेत्रों की राह से आज बह जाने की ठान ही ली थी ।वे अपनी सारी शक्ति समेट उठे और चल पड़े ।

जयमल शीघ्रतापूर्वक उनके समीप पहुँचे ।उन्होंने देखा आते समय तो भोजराज प्रसन्न थे, परन्तु अब तो उदासी मुख से झर रही है ।उसने सोचा -संभवतः जीजा के दुख से दुखी हुए है, तभी तो ऐसा वचन दिया ।कुछ भी हो, जीजा इनसे विवाह कर सुखी ही होंगी ।

और भोजराज?वे चलते हुये जयमल से बीच से ही विदा ले मुड़ गये ताकि कहीं एकान्त पा अपने मन का अन्तर्दाह बाहर निकालें।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

सोमवार, 25 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ११

॥जय श्री राम॥

मीरा की भक्ति संस्कारों को पोषण देने वाले , मेड़ता राज्य के संस्थापक ,परम वैष्णव भक्त , वीर शिरोमणि राव दूदाजी पचहत्तर वर्ष की आयु में यह भव छोड़कर गोलोक सिधारे ।

दूदाजी के जाने के बाद मीरा बहुत गम्भीर हो गई । उसके सबसे बड़े सहायक और अवलम्ब उसके बाबोसा के न रहने से उसे अकेलापन खलने लगा ।यह तो प्रभु की कृपा और दूदाजी की भक्ति का प्रताप था कि पुष्कर आने वाले संत मेड़ता आकर दर्शन देते ।इस प्रकार मीरा को अनायास सत्संग प्राप्त होता ।पर धीरेधीरे रनिवास में इसका भी विरोध होने लगा - लड़की बड़ी हो गई है, अतः इस प्रकार देर तक साधुओं के बीच में बैठे रहना और भजन गाना अच्छा नहीं है ।

सभी साधु तो अच्छे नहीं होते ।पहले की बात ओर थी ।तब अन्नदाता हुकम साथ रहते थे और मीरा भी छोटी ही थी ।अब वह चौदह वर्ष की हो गई है । आख़िर कब तक कुंवारी रखेंगे ? एक दिन माँ ने फिर श्याम कुन्ज आकर मीरा को समझाया - बेटी अब तू बड़ी हो गई है इस प्रकार साधुओं के पास देर तक मत बैठा कर ।उन बाबाओं के पा स ऐसा क्या है जो किसी संत के आने की बात सुनते ही तू दौड़ जाती है ।यह रात रात भर रोना और भजन गाना ,क्या इसलिए भगवान ने तुम्हें ऐसे रूप गुण दिये है ?

ऐसी बात मत फरमाओ भाबू ! भगवान को भूलना और सत्संग छोड़ना दोनों ही अब मेरे बस की बात नहीं रही ।जिस बात के लिए आपको गर्व होना चाहिए , उसी के लिए आप मन छोटा कर रही है ।

मीरा ने तानपुरा उठाया

म्हाँने मत बरजे ऐ माय साधाँ दरसण जाती।
राम नाम हिरदै बसे माहिले मन माती॥
मीरा व्याकुल बिरहणि , अपनी कर लीजे॥

माता उठकर चली गई ।मीरा को समझाना उनके बस का न रहा ।सोचती अब इसके लिए जोगी राजकुवंर कहाँ से ढूँढे ? मीरा भी उदास हो गयी ।बार बार उसे दूदाजी याद आते ।

इन्हीं दिनों अपनी बुआ गिरिजा जी को लेने चितौड़ से कुँवर
भोजराज अपने परिकर के साथ मेड़ता पधारे ; रूप और बल की सीमा , धीर -वीर, समझदार बीसेक वर्ष का नवयुवक । जिसने भी देखा, प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाया ।जँहा देखो, महल में यही चर्चा करते ऐसी सुन्दर जोड़ी दीपक लेकर ढूँढने पर भी नहीं मिलेगी ।भगवान ने मीरा को जैसे रूप  गुणों से संवारा है,
वैसा भाग्य भी दोनों हाथों से दिया है ।
भीतर ही भीतर यह तय हुआ कि गिरिजा जी के साथ यहाँ से पुरोहित जी जायँ बात करने ।और अगर वहाँ साँगा जी अनुकूल लगे तो गिरिजा जी को वापिस लिवाने के समय वीरमदेव जी बात पक्की कर लगन की तिथि निश्चित कर ले।

हवा के पंखों पर उड़ती हुईं ये बातें मीरा के कानों तक भी पहुँची ।वह व्याकुल हो उठी ।मन की व्यथा किससे कहे ? जन्मदात्री माँ ही जब दूसरों के साथ जुट गई है तो अब रहा ही कौन? मन के मीत को छोड़कर मन की बात समझे भी और कौन ? पर वो भी क्या समझ रहे है ? भारी ह्रदय और रूधाँ कण्ठ ले उसने मन्दिर में प्रवेश किया

मेरे स्वामी ! मेरे गोपाल !! मेरे सर्वस्व !!! मैं कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ? मुझे बताओ , यह तुम्हें अर्पित तन -मन क्या अब दूसरों की सम्पत्ति बनेंगे ? मैं तो तुम्हारी हूँ. याँ तो मुझे संभाल लो अथवा आज्ञा दो मैं स्वयं को बिखेर दूँ. पर अनहोनी न होने दो मेरे प्रियतम !

झरते नेत्रों से मीरा अपने प्राणाधार को उनकी करूणा का स्मरण दिला मनाने लगी

म्हाँरी सुध लीजो दीनानाथ ।
जल डूबत गजराज उबारायो जल में पकड़यो हाथ।
जिन प्रह्लाद पिता दुख दीनो नरसिंघ भया यदुनाथ॥
नरसी मेहता रे मायरे राखी वाँरी बात ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ॥
म्हाँरी सुध लीजो दीनानाथ ॥

कुँवर भोजराज पहली बार बुआ गिरिजा के ससुराल आये थे ।भुवा के दुलार की सीमा न थी।एक तो मेवाड़ के उत्तराधिकारी ,दूसरे गिरिजा जी के लाडले भतीजे और तीसरे मेड़ते के भावी जमाई होने के कारण पल पल महल में सब उनकी आवभगत में जुटे थे ।
जयमल और भोजराज की सहज ही मैत्री हो गई ।दोनों ही इधरउधर घूमते -घामते फुलवारी में आ निकले ।सुन्दर श्याम कुन्ज मन्दिर को देखकर भोजराज के पाँव उसी ओर उठने लगे । मीठी रागिनी सुनकर उन्होंने उत्सुकता से जयमल की ओर देखा ।जयमल ने कहा , मेरी बड़ी बहन मीरा है ।इनके रोम रोम में भक्ति बसी हुई है । जैसे आपके रोम रोम में वीरता बसी हुई है । भोजराज ने हँस कर कहा, भक्ति और वीरता , भाई बहन की ऐसी जोड़ी कहाँ मिलेगी ? विवाह कहाँ हुआ इनका ?

विवाह ? विवाह की क्या बात फरमाते है आप ? विवाह का तो
नाम भी सुनते ही जीजा (दीदी) की आँखों से आँसुओं के झरने बहने लगते है ।हुआ यों कि किसी बारात को देखकर जीजा ने काकीसा से पूछा कि हाथी पर यह कौन बैठा है ? उन्होंने बतलाया कि नगर सेठ की लड़की का वर है ।यह सुनकर इन्होने जिद की कि मेरा वर बताओ ।काकीसा ने इन्हें चुप कराने के लिए कह दिया कि तेरा वर गिरधर गोपाल है ।बस, उसी समय से इन्होंने भगवान को अपना वर मान लिया है।रात दिन बस भजन-पूजन , भोग- राग, नाचने -गाने में लगी रहती है ।जब यह गाने बैठती है तो अपने आप मुख से भजन निकलते जाते है ।बाबोसा के देहांत के पश्चात पुनः इनके विवाह की रनिवास में चर्चा होने लगी है ।इसलिए अलग रह श्याम कुन्ज में ही अधिक समय बिताती है । जयमल ने बाल स्वभाव से ही सहज ही सब बातें भोजराज को बताई ।

यदि आज्ञा हो तो ठाकुर जी और राठौड़ों की इस विभूति का मैं भी दर्शन कर लूँ ? भोजराज ने प्रभावित होकर सर्वथा अनहोनी सी बात कही । न चाहते हुये भी केवल उनका सम्मान रखने के लिए ही जयमल बोले , हाँ हाँ अवश्य ।पधारो ।

उन दोनों ने फुलवारी की बहती नाली में ही हाथ पाँव धोये और मन्दिर में प्रवेश किया ।सीढ़ियाँ चढ़ते हुये भोजराज ने उस करूणा के पद की अंतिम पंक्ति सुनी..

मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ॥

वह भजन पूरा होते ही बेखबर मीरा ने अपने प्राणाधार को मनाते हुये दूसरा भजन आरम्भ कर दिया ..

गिरधर लाल प्रीत मति तोड़ो ।
गहरी नदिया नाव पुरानी अधबिच में काँई छोड़ो॥
थें ही म्हाँरा सेठ बोहरा ब्याज मूल काँई जोड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर रस में विष काँई घोलो॥

------------------------------------------------------------------आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

शनिवार, 23 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १०

॥जय श्री राम॥

ऐसे ही उस दिन मीरा गिरधर की सेवा पूजा कर बैठी ही थी कि गंगा ने बताया कि दूदाजी ने आपको याद फरमाया है ।मीरा ने जाकर देखा तो उनके पलंग के पास पाँचों पुत्र , दीवान जी, राजपुरोहित और राजवैद्यजी सब वहीं थे । सहसा आँखें खोल कर दूदाजी ने पुकारा , मीरा.।

जी मैं हाजिर हूँ बाबोसा । मीरा उनके पास आ बोली ।

मीरा भजन गाओ बेटी ! मीरा ने ठाकुर जी की भक्त वत्सलता का एक पद गाया ।पद पूरा होने पर दूदाजी ने चारभुजानाथ के दर्शन की इच्छा प्रकट की ।तुरन्त पालकी मंगवाई गई ।उन्हें पालकी में पौढ़ा कर चारों पुत्र कहार बने ।वीरमदेव जी छत्र लेकर पिताजी के साथ चले ।दो घड़ी तक दर्शन करते रहे ।पुजारी जी ने चरणामृत , तुलसी माला और प्रसाद दिया ।वहाँ से लौटते श्याम कुन्ज में गिरधर गोपाल के दर्शन किए और मन ही मन कहा , अब चल रहा हूँ स्वामी ! अपनी मीरा को संभाल लेना प्रभु ।

महल में वापिस लौट कर थोड़ी देर आँखें मूंद कर लेटे रहे ।
फिर अपनी तलवार वीरमदेव जी को देते हुये कहा, प्रजा की रक्षा का और राज्य के संचालन का पूर्ण दायित्व तुम्हारे सबल स्कन्ध वाहन करे । मीरा और जयमल को पास बुला कर आशीर्वाद देते हुये कहने लगे, प्रभु कृपा से, तुम दोनों के शौर्य व भक्ति से मेड़तिया कुल का यश संसार में गाया जायेगा ।भारत की भक्त माल में तुम दोनों का सुयश पढ़ सुनकर लोग भक्ति और शौर्य पथ पर चलने का उत्साह पायेंगे ।उनकी आँखों से मानों आशीर्वाद स्वरूप आँसू झरने लगे ।

वीरमदेव जी ने दूदाजी से विनम्रता से पूछा , आपकी कोई इच्छा हो तो आज्ञा दें । बेटा ! सारा जीवन संत सेवा का सौभाग्य मिलता रहा ।अब संसार छोड़ते समय बस संत दर्शन की ही लालसा है ।पर यह तो प्रभु के हाथ की बात है ।वीरमदेव जी ने उसी समय पुष्कर की ओर सवार दौड़ाये संत की खोज में ।मीरा आज्ञा पाकर गाने लगी

नहीं ऐसो जनम बारम्बार ।
क्या जानूँ कुछ पुण्य प्रगटे मानुसा अवतार॥
बढ़त पल पल घटत दिन दिन जात न लागे बार।
बिरछ के ज्यों पात टूटे लगे नहिं पुनि डार॥
भवसागर अति जोर कहिये विषम ऊंडी धार।
राम नाम का बाँध बेड़ा उतर परले पार॥
ज्ञान चौसर मँडी चौहटे सुरत पासा सार।
या दुनिया में रची बाजी जीत भावै हार॥
साधु संत मंहत ज्ञानी चलत करत पुकार।
दास मीरा लाल गिरधर जीवणा दिन चार ॥

पद पूरा करके मीरा ने अभी तानपुरा रखा ही था कि द्वारपाल ने आकर निवेदन किया- अन्नदाता ! दक्षिण से श्री चैतन्यदास नाम के संत पधारे है । उसकी बात सुनने ही दूदाजी एकदम चैतन्य हो गये ।मानो बुझते हुए दीपक की लौ भभक उठी हो ।आँख खोल कर उन्होंने संत को सम्मान से पधराने का संकेत किया ।सब राजपुरोहित जी के साथ उनके स्वागत के लिया बढ़े ही थे कि द्वार पर गम्भीर और मधुर स्वर सुनाई दिया .. राधेश्याम ..!

मीरा के दूदाजी , परम वैष्णव भक्त आज अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर है ।लगभग समस्त परिवार उनके कक्ष में जुटा हुआ है- पर उन्हें लालसा है कि मैं संसार छोड़ते समय संत दर्शन कर पाऊँ ।उसी समय द्वार से मधुर स्वर सुनाई दिया. राधेश्याम !
दूदाजी में जैसे चेतना लौट आई ।सब की दृष्टि उस ओर उठ गई ।मस्तक पर घनकृष्ण केश, भाल पर तिलक , कंठ और हाथ तुलसी माला से विभूषित , श्वेत वस्त्र , भव्य मुख वैष्णव संत के दर्शन हुए ।संत के मुख से राधेश्याम , यह प्रियतम का नाम
सुनकर उल्लसित हो मीरा ने उन्हें प्रणाम किया ।फिर दूदाजी से बोली , आपको संत- दर्शन की इच्छा थी न बाबोसा ? देखिये , प्रभु ने कैसी कृपा की ।

संत ने मीरा को आशीर्वाद दिया और परिस्थिति समझते हुये स्वयं दूदाजी के समीप चले गये ।बेटों ने संकेत पा पिता को सहारे से बिठाया । प्रणाम कर बोले , कहाँ से पधारना हुआ महाराज ? मैं दक्षिण से आ रहा हूँ राजन ।नाम चैतन्यदास है ।कुछ समय पहले गौड़ देश के प्रेमी सन्यासी श्री कृष्ण चैतन्य तीर्थाटन करते हुये मेरे गाँव पधारे और मुझ पर कृपा कर श्री वृंन्दावन जाने की आज्ञा की ।

श्री कृष्ण चैतन्य सन्यासी हो कर भी प्रेमी है महाराज ? मीरा ने उत्सुकता से पूछा ।

संत बोले , यों तो उन्होंने बड़े बड़े दिग्विजयी वेदान्तियों को भी पराजित कर दिया है, परन्तु उनका सिद्धांत है कि सब शास्त्रों का सार भगवत्प्रेम है और सब साधनों का सार भगवान का नाम है ।त्याग ही सुख का मूल है ।तप्तकांचन गौरवर्ण सुन्दर सुकुमार देह, बृजरस में छके श्रीकृष्ण चैतन्य का दर्शन करके लगता है मानो स्वयं गौरांग कृष्ण ही हो ।वे जाति -पाति, ऊँच-नीच नहीं देखते । हरि को भजे सो हरि का होय  मानते हुए सबको हरि  नामामृत का पान कराते है ।अपने ह्रदय के अनुराग का द्वार खोलकर सबको मुक्त रूप से प्रेमदान करते है । इतना कहते कहते उनका कंठ भाव से भर आया ।

मीरा और दूदाजी दोनों की आँखें इतना रसमय सत्संग पाकर
आँसुओं से भर आई ।फिर संत कहने लगे , मैं दक्षिण से पण्डरपुर आया तो वहाँ मुझे एक वृद्ध सन्यासी केशवानन्द जी मिले । जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं वृन्दावन जा रहा हूँ तो उन्होंने मुझे एक प्रसादी माला देते हुये कहा कि तुम पुष्कर होते हुये मेड़ते जाना और वहां के राजा दूदाजी राठौड़ को यह माला देते हुये कहना कि वे इसे अपनी पौत्री को दे दें ।पण्डरपुर से चल कर मैं पुष्कर आया और देखिए प्रभु ने मुझे सही समय पर यहां पहुँचा दिया ।

ऐसा कह संत ने अपने झोले से माला निकाल दूदाजी की ओर बढ़ाई । दूदाजी ने संकेत से मीरा को उसे लेने को कहा ।उसने बड़ी श्रद्धा और प्रसन्नता से उसे अंजलि में लेकर उसे सिर से लगाया ।दूदाजी लेट गये और कहने लगे केशवानन्द जी मीरा के जन्म से पूर्व पधारे थे ।उन्हीं के आशीर्वाद का फल है यह मीरा ।महाराज आज तो आपके रूप में स्वयं भगवान पधारे हैं ।यों तो सदा ही संतों को भगवत्स्वरूप समझ कर जैसी बन पड़ी , सेवा की है , किन्तु आज महाप्रयाण के समय आपने पधार कर मेरा मरण भी सुधार दिया । उनके बन्द नेत्रों की कोरों से आँसू झरने लगे ।

पर ऐसे कर्तव्य परायण और वीर पुत्र , फुलवारी सा यह मेरा परिवार , भक्तिमति पौत्री मीरा, अभिमन्यु सा पौत्र जयमल -ऐसे भरे-पूरे परिवार को छोड़कर जाना मेरा सौभाग्य है । फिर बोले , मीरा !

हकम बाबोसा !! जाते समय एक भजन तो सुना दे बेटा ! मीरा ने आज्ञा पा तानपुरा उठाया और गाने लगी ..

मैं तो तेरी शरण पड़ी रे रामा,
ज्यूँ जाणे सो तार ।
अड़सठ तीरथ भ्रमि भ्रमि आयो,
मन नहीं मानी हार ।
या जग में कोई नहीं अपणा ,
सुणियो श्रवण कुमार ।
मीरा दासी राम भरोसे ,
जम का फेरा निवार ।

मधुर संगीत और भावमय पद श्रवण करके चैतन्य दास स्वयं को रोक नहीं पाये धन्य ,धन्य हो मीरा ।तुम्हारा आलौकिक प्रेम, संतों पर श्रद्धा , भक्ति की लगन, मोहित करने वाला कण्ठ, प्रेम रस में पगे यह नेत्र इन सबको तो देख लगता है मानो
तुम कोई ब्रजगोपिका हो ।वे जन भाग्यशाली होंगे जो तुम्हारी इस भक्ति -प्रेम की वर्षा में भीगकर आनन्द लूटेंगें ।धन्य है आपका यह वंश ,जिसमें यह नारी रत्न प्रकट हुआ ।

मीरा ने सिर नीचा कर प्रणाम किया और अतिशय विनम्रता से बोली , कोई अपने से कुछ नहीं होता महाराज  । संत कुछ आहार ले चलने को प्रस्तुत हुए ।रात्रि बीती ।दूदाजी का अंतर्मन चैतन्य था पर शरीर शिथिल हो रहा था ।

ब्राह्म मुहूर्त में मीरा ने दासियों के साथ धीमे धीमे संकीर्तन आरम्भ किया ।

जय चतुर्भुजनाथ दयाल ।
जय सुन्दर गिरधर गोपाल ॥

उनके मुख से अस्फुट स्वर निकले-- प्रभु ..पधार.रहे है.. । ज..य ..हो ।पुरोहित जी ने तुलसी मिश्रित चरणामृत दिया।


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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ९

॥ नमो राघवाय ॥

रात ठाकुर जी को शयन करा कर मीरा उठ ही रही थी कि गिरिजा जी की दासी ने आकर संदेश दिया -बड़े कुँवरसा आपको बुलवा रहे है । क्यों अभी ही ? मीरा ने चकित हो पूछा और साथ ही चल दी ।
उसने महल में जाकर देखा कि उसके बड़े पिताजी और बड़ी माँ दोनों प्रसन्न चित बैठे थे ।मीरा भी उन्हें प्रणाम कर बैठ गई । मीरा तुम्हें अपनी यह माँ कैसी लगती है ? वीरमदेव जी ने मुस्कुरा कर पूछा । माँ तो माँ होती है ।माँ कभी बुरी नहीं होती । मीरा ने मुस्कुरा कर कहा ।

और इनके पीहर का वंश , वह कैसा है ? यों तो
इस विषय में मुझसे अधिक आप जानते होंगे ।पर जितना मुझे पता है तो हिन्दुआ सूर्य, मेवाड़ का वंश संसार में वीरता , त्याग , कर्तव्य पालन और भक्ति में सर्वोपरि है । मेरी समझ में तो बाव जी हुकम ! आरम्भ में सभी वंश श्रेष्ठ ही होते है उसके किसी वंशज के दुष्कर्म के कारण अथवा हल्की ज़गह विवाह -सम्बन्ध से लघुता आ जाती है ।

बेटी , तुम्हारे इन माँ के भतीजे है भोजराज ।रूप और गुणों की खान मैंने सुना है । मीरा ने बीच में ही कहा । वंश और पात्र में कहीं कोई कमी नहीं है ।गिरिजा जी तुझे अपने भतीजे की बहू बनाना चाहती है । बाव जी हुकम ! मीरा ने सिर झुका लिया - ये बातें बच्चों से तो करने की नहीं है ।

जानता हूँ बेटी ! पर दादा हुकम ने फरमाया है कि मेरे जीवित रहते मीराका विवाह नहीं होगा ।बेटी बापके घरमें नहीं खटती बेटा ! यदि
तुम मान जाओ तो दाता हुकमको मनाना सरल हो जायेगा ।बादमें ऐसा घर-वर शायद न मिले ।मुझे भी तुमसे ऐसी बातें करना अच्छा नहीं लग रहा है, किन्तु कठिनाई ही ऐसी आन पड़ी है तुम्हारी माताएँ कहती हैं कि हमसे ऐ सी बात कहते नहीं बनती ।पहले योग -भक्ति सिखाई अब विवाह के लिये पूछ रहे हैं ।इसी कारण स्वयं पूछ रहा हूँ बेटी ।

बावजी हुकम ! रूंधे कंठसे मीरा केवल सम्बोधन ही कर पायी ।ढलनेको आतुर आंसुओंसे भरी बड़ी -बडी आंखें उठाकर उसने अपने बड़े पिताकी और देखा ।ह्रदयके आवेगको अदम्य पाकर वह एकदमसे उठकर माता-पिता को प्रणाम किये बिना ही दौड़ती हुई कक्षसे बाहर निकल गयी ।

वीरमदेवजी नें देखा -मीराके रक्तविहीन मुखपर व्याघ्र के पंजेमें फँसी गायके समान भय, विवशता और निराशाके भाव और मरते पशुके आर्तनाद सा विकल स्वर बावजी हुकम कानोंमे पड़ा तो वे विचलित हो उठे ।वे रणमें प्रलयंकर बन कर शवों से धरती पाट सकते हैं ; निशस्त्र व्याघ्र से लड़ सकते हैं किकेक न्तु अपनी पुत्री की आँखों में विवशता नहीं देखसके ।उन्हें तो ज्ञात ही नहीं हुआ कि मीरा  बाव जी हुकम  कहते कब कक्ष से बाहर चली गई ।

बड़े पिताजी और बड़ी माँ के यूँ मीरा से सीधे सीधे ही मेवाड़ के राजकुवंर भोजराज से विवाह के प्रस्ताव पर मीरा का ह्रदय विवशता से क्रन्दन कर उठा ।वह शीघ्रता पूर्वक कक्ष से बाहर आ सीढ़ियाँ उतरती चली गई ।वह नहीं चाहती थी कि कोई भी उसकी आँखों में आँसू भी देखे ।जिसने उसे दौड़ते हुए देखा , चकित रह गया , ब्लकि पुकारा भी ,पर मीरा ने किसी की बात का उत्तर नहीं दिया ।

मीरा अपने ह्रदय के भावों को बाँधे अपने कक्ष में गई और
धम्म से पलंग पर औंधी गिर पड़ी ।ह्रदय का बाँध तोड़ कर रूदन उमड़ पड़ा - यह क्या हो रहा है मेरे सर्वसमर्थ स्वामी ! अपनी पत्नी को दूसरे के घर देने अथवा जाने की बात तो साधारण- से-साधारण , कायर-से- कायर राजपूत भी नहीं कर सकता । शायद तुमने मुझे अपनी पत्नी स्वीकार ही नहीं किया , अन्यथा . । हे गिरिधर ! यदि तुम अल्पशक्ति होते तो मैं तुम्हें दोष नहीं देती ।तब तो यही सत्य है न कि तुमने मुझे अपना माना ही नहीं .. ।न किया हो, स्वतन्त्र हो तुम ।किसी का बन्धन तो नहीं है तुम पर ।

हे प्राणनाथ ! पर मैंने तो तुम्हें अपना पति माना है.. मैं कैसे अब दूसरा पति वर लूँ ? और कुछ न सही ,शरणागत के सम्बन्ध से ही रक्षा करो.. रक्षा करो ।अरे ऐसा तो निर्बल -से निर्बल राजपूत भी नहीं होने देता ।यदि कोई सुन भी लेता है कि अमुक कुमारी ने उसे वरण किया है तो प्राणप्रण से वह उसे बचाने का , अपने यही लाने का प्रयत्न करता है ।तुम्हारी शक्ति तो अनन्त है, तुम तो भक्त -भयहारी हो । हे प्रभु ! तुम तो करूणावरूणालय हो, शरणागतवत्सल हो, पतितपावन हो, दीनबन्धु हो.. कहाँ तक गिनाऊँ ।इतनी अनीति मत करो मोहन .मत करो ।मेरे तो तुम्हीं एकमात्र आश्रय हो.. रक्षक हो.तुम्हीं सर्वस्व हो, मैं अपनी रक्षा के लिये तुम्हें छोड़ किसे पुकारूँ किसे पुकारूँ किसे ..?

जो तुम तोड़ो पिया ,मैं नहीं तोड़ू
तोसों प्रीत तोड़ कृष्ण ,कौन संग जोड़ू॥
तुम भये तरूवर, मैं भई पंखिया
तुम भये सरोवर, मैं तेरी मछिया
तुम भये गिरिवर, मैं भई चारा
तुम भये चन्दा, मैं भई चकोरा ।
तुम भये मोती प्रभु हम भये धागा
तुम भये सोना हम भये सुहागा
मीरा कहे प्रभु बृज के वासी
तुम मेरे ठाकुर मुझे तेरी दासी ।
जो तुम तोड़ो पिया , मैं नहीं तोड़ू ।
तोसो प्रीत तोड़ कृष्ण ,कौन संग जोड़ू ॥

राव दूदाजी अब अस्वस्थ रहने लगे थे ।अपना अंत समय समीप जानकर उनकी ममता मीरा पर अधिक बढ़ गयी थी ।उसके मुख से भजन सुने बिना उन्हें दिन सूना लगता।मीरा भी समय मिलते ही दूदाजी के पास जा बैठती ।उनके साथ भगवत चर्चा करती।अपने और अन्य संतो के रचे हुए पद सुनाती।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ८

॥जय श्री राम॥

संत रैदास जी दो दिन मेड़ता में रहे ।उनके जाने से मीरा को सूना सूना लगा ।वह सोचने लगी कि, दो दिन सत्संग का कैसा आनन्द रहा ? सत्संग में बीतने वाला समय ही सार्थक है ।
प्रतिदिन की तरह मीरा पूजा समपन्न कर श्याम कुन्ज में बैठी भजन गा रही थी ।माँ वीरकुँवरी जी आई तो ठाकुर जी को प्रणाम करके बैठ गई ।मीरा ने भजन पूरा होने पर तानपुरा रखते समय माँ को देखा तो चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया ।माँ ने जब बेटी का अश्रुसिक्त मुख देखा तो पीठ पर स्नेह से हाथ रखते हुए बोली , मीरा ! क्या भजन गा गा कर ही आयु पूरी करनी है बेटी ? जहाँ विवाह होगा , वह लोग क्या
भजन सुनने के लिए तुझे ले जायेंगे ? जिसका ससुराल और पीहर एक ही ठौर हो भाबू ! उसे चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है ? मैं समझी नहीं बेटी !माँ ने कहा । महलों में मेरा पीहर है और श्याम कुन्ज ससुराल । मीरा ने सरलता से कहा।

तुझे कब समझ आयेगी बेटी ! कुछ तो जगत व्यवहार सीख ।बड़े बड़े घरों में तुम्हारे सम्बन्ध की चर्चा चल रही है ।इधर रनिवास में हम लोगों का चिन्ता के मारे बुरा हाल है ।यह रात दिन गाना -बजाना ,पूजा-पाठ और रोना-धोना इन सबसे संसार नहीं चलता ।ससुराल में सास-ननद का मन रखना पड़ता है, पति को परमेश्वर मानकर उसकी सेवा टहल करनी पड़ती है ।मीरा ! सारा परिवार तुम्हारे लिए चिन्तित है ।

भाबू ! पति परमेश्वर है, इस बात को तो आप सबके व्यवहार को देखकर मैं समझ गई हूँ  ।ये गिरधर गोपाल मेरे पति ही तो हैं और मैं इन्हीं की सेवा में लगी रहती हूँ, फिर आप ऐसा क्यों फरमाती है ?

अरे पागल लड़की ! पीतल की मूरत भी क्या किसी का पति हो सकती है ? मैं तो थक गई हूँ ।भगवान ने एक बेटी दी वह भी आधी पागल ।

माँ ! आप क्यों अपना जी जलाती है सोच सोच कर ।बाबोसा ने मुझे बताया है कि मेरा विवाह हो गया है ।अब दूसरा विवाह नहीं होगा ।

कब हुआ तेरा विवाह ? हमने न देखा , न सुना ।कब हल्दी चढ़ी , कब बारात आई, कब विवाह -विदाई हुई ? न ही किसने कन्यादान किया ? यह तुझे बाबोसा ने ही सिर चढ़ाया है ।

यदि आपको लगता है कि विवाह नहीं हुआ तो अभी कर दीजिए ।न तो वर को कहीं से आना है न कन्या को ।दोनों आपके सम्मुख है दूसरी तैयारी ये लोग कर देंगी ।दो जनी जाकर पुरोहित जी और कुवँर सा (पिता जी ) को बुला लायेगीं ।मीरा ने कहा ।

हे भगवान ! अब मैं क्या करूँ ? रनिवास में सब मुझे ही दोषी ठहराते है कि बेटी को समझाती नहीं और यहाँ यह हाल है कि इस लड़की के मस्तिष्क में मेरी एक बात भी नहीं घुसती । फिर थोड़ा शांत हो कर प्यार से वीरकुवंरी जी मनाते हुए कहने लगी , बेटा नारी का सच्चा गुरु पति होता है । पर भाबू ! आप मुझे गिरधर से विमुख क्यों करती है ? ये तो आपके सुझाये हुये मेरे पति है न ?

अहा ! जिस विधाता ने इतना सुन्दर रूप दिया उसे इतनी भी बुद्धि नहीं दी कि यह सजीव मनुष्य में और पीतल की मूरत में अन्तर ही नहीं समझती ।वह तो उस समय तू ज़िद कर रही थी, इसलिए तुझे बहलाने के लिए कह दिया था ।

आप ही तो कहती है कि कच्ची हाँडी पर खींची रेखा मिटती नहीं और पकी हाँडी पर गारा ठहरता नहीं ।उस समय मेरे कच्ची बुद्धि में बिठा दिया कि गिरधर तेरे पति है और अब दस वर्ष की होने पर कहती हैं कि वह बात तो बहलाने के लिया कही थी ।भाबू ! पर सब संत यही कहते है कि मनुष्य शरीर भगवत्प्राप्ति के लिए मिला है इसे व्यर्थ कार्यों में नहीं लगाना चाहिए ।

वीरकुवंरी जी उठकर चल दी ।सोचती जाती थी- ये शास्त्र ही आज बैरी हो गये- मेरी सुकुमार बेटी को यह बाबाओं वाला पथ कैसे पकड़ा दिया ।उनकी आँखों में चिन्ता से आँसू आ गये ।

मीरा माँ की बाते सोचते हुए कुछ देर एकटक गिरधर की ओर निहारती रही ।फिर रैदास जी का इकतारा उठाया और गाने लगी .

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ॥
कोई कहे कालो , कोई कहे गोरो
लियो है मैं आँख्याँ खोल ।
कोई कहे हलको, कोई कहे भारो
लियो है तराजू तोल ॥
कोई कहे छाने, कोई कहे चवड़े
लियो है बंजता ढोल ।
तनका गहणा मैं सब कुछ दीनाँ
दियो है बाजूबँद खोल ॥
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर,
पूरब जनम को है कौल॥

यों तो मेड़ते के रनिवास में गिरिजा जी , वीरमदेव जी ( दूदा जी के सबसे बड़े बेटे ) की तीसरी पत्नी थी ,किन्तु पटरानी वही थी ।उनका ऐश्वर्य देखते ही बनता था ।पीहर से उनके विवाह के समय में पचासों दास दासियाँ साथ आये थे और परम प्रतापी हिन्दुआ सूर्य महाराणा साँगा की लाडली बहन का वैभव एवं सम्मान यहाँ सबसे अधिक था ।पूरे रनिवास में उनकी उदा र व्यवहारिकता में भी उनका ऐश्वर्य उपस्थित रहता ।
मीरा उनकी बहुत दुलारी बेटी थी ।ये उसकी सुन्दरता , सरलता पर जैसे न्यौछावर थी ।बस, उन्हें उसका आठों प्रहर ठाकुर जी से चिपके रहना नहीं सुहाता था ।किसी दिन त्योहार पर भी मीरा को श्याम कुन्ज से पकड़ कर लाना पड़ता ।मीरा को बाँधने के तो दो ही पाश थे ,भक्त -भगवत चर्चा अथवा वीर गाथा । जब भी गिरिजा जी मीरा को पाती , उसे बिठाकर अपने पूर्वजों की शौर्य गाथा सुनाती ।मीरा को वीर और भक्तिमय चरित्र रूचिकर लगते ।


आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

मंगलवार, 19 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ७

॥जय श्री राम॥

अगले दिन जब बाबा श्याम कुन्ज में ठाकुर को प्रणाम करने आये तो मीरा और बाबा की झरती आँखों ने वहाँ उपस्थित सब जन को रूला दिया । मीरा अश्रुओं से भीगी वाणी में बोली , आप वृन्दावन जा रहे हैं बाबा ! मेरा एक संदेश ले जायेंगे ?
बोलो बेटी ! तुम्हारा संदेश -वाहक बनकर तो मैं भी कृतार्थ हो जाऊँगा । मीरा ने कक्ष में दृष्टि डाली ।दासियों सखियों के अतिरिक्त दूदाजी व रायसल काका भी थे ।लाज के मारे क्या कहती । शीघ्रता से कागज़ कलम ले लिखने लगी ।ह्रदय के भाव तरंगों की भांति उमड़ आने लगे ; आँसुओं से दृष्टि धुँधला जाती ।वह ओढ़नी से आँसू पौंछ फिर लिखने लगती।लिख कर उसने मन ही मन पढ़ा |

गोविन्द,
गोविन्द कबहुँ मिलै पिया मेरा ।
चरण कँवल को हँस हँस देखूँ ,
राखूँ नैणा नेरा ।
निरखन का मोहि चाव घणेरौ ,
कब देखूँ मुख तेरा ॥
व्याकुल प्राण धरत नहीं धीरज,
मिल तू मीत सवेरा ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
ताप तपन बहु तेरा ॥

पत्र को समेट कर और सुन्दर रेशमी थैली में रखकर मीरा ने पूर्ण विश्वास से उसे बाबा की ओर बढ़ा दिया ।बाबा ने उसे लेकर सिर चढ़ाया और फिर उतने ही विश्वास से गोविन्द को देने के लिए अपने झोले में सहेज कर रख लिया ।गिरधर को सबने प्रणाम किया ।मीरा ने पुनः प्रणाम किया । बिहारी दास जी के जाने से ऐसा लगा , जैसे गुरु , मित्र और सलाहकार खो गया हो ।

रात्रि में मीरा ने स्वप्न देखा कि महाराज युधिष्ठिर की सभा में प्रश्न उठा कि प्रथम पूज्य , सर्वश्रेष्ठ कौन है जिसका प्रथम पूजन किया जाय ।चारों तरफ़ से एक ही निर्णय हुआ - कृष्णं वंदे जगदगुरूम । युधिष्ठिर ने सपरिवार अतिश य विनम्रता से श्रीकृष्ण के चरणों को धोया ।

सुबह हुई तो मीरा सोचने लगी-गिरधर वे सब सत्य कह रहे थे कि तुम्हीं ही तो सच्चे गुरु हो ।आज तुम जिस संत के रूप में पधारोगे , मैं उनको ही अपना गुरु मान लूँगी ।वे आज गुरु पूर्णिमा है ।मीरा ने गिरधर गोपाल को नया श्रंगार धारण कराया , गुरु भाव से उनकी पूजा की और गाने लगी..

म्हाँरा सतगुरू बेगा आजो जी ।
म्हारे सुख री सीर बहाजो जी॥
अरज करै मीरा दासी जी ।
गुरु पद रज की प्यासी जी ॥

सारा दिन बीत गया ।सायंकाल अकस्मात विचरते हुए काशी के संत रैदास जी का मेड़ते में पधारना हुआ ।दूदाजी बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने शक्ति भर उनका सत्कार किया और आवास प्रदान किया ।मीरा को बुलाकर उनका परिचय दिया ।मीरा प्रसन्न हो उठी ।मन ही मन उन्हें गुरुवत बुद्धि से प्रणाम किया ।उन्होंने भी कृपा दृष्टि से उसे निहारते हुये आशीर्वाद दिया -प्रभु चरणों में दिनानुदिन तुम्हारी प्रीति बढ़ती रहे ।

आशीर्वाद सुनकर मीरा के नेत्र भर आये ।उसने कृतज्ञता से उनकी ओर देखा ।उस असाधारण निर्मल दृष्टि और मुख के भाव देख कर संत सब समझ गये ।उसके जाने के पश्चात उन्होंने दूदाजी से मीरा के बारे में पूछा ।सब सुनकर वे बोले, राजन ! तुम्हारे पुण्योदय से घर में गंगा आई है ।अवगाहन कर लो जी भरकर ।सबके सब तर जाओगे । रात को राजमहल के सामने वाले चौगान में सार्वजनिक सत्संग समारोह हुआ ।रैदास जी के उपदेश -भजन हुए ।दूदाजी के आग्रह से मीरा ने भी भजन गाकर उन्हें सुनाये ।

लागी मोहि राम खुमारी हो ।
रिमझिम बरसै मेहरा भीजै तन सारी हो ।
चहुँ दिस दमकै दामणी ,गरजै घन भारी हो ॥
सतगुरू भेद बताईया खोली भरम किवारी हो ।
सब घर दीसै आतमा सब ही सूँ न्यारी हो॥
दीपक जोऊँ ग्यान का चढ़ूँ अगम अटारी हो ।
मीरा दासी राम की इमरत बलिहारी हो॥

मीरा के संगीत  ज्ञान ,पद रचना और स्वर माधुरी से संत बड़े प्रसन्न हुये ।उन्होंने पूछा - तुम्हारे गुरु कौन है बेटी ?

कल मैंने प्रभु के सामने निवेदन किया था कि मेरे लिए गुरु भेजें और फिर निश्चय किया कि आज गुरु पूर्णिमा है , अतः जो भी संत आज पधारेगें , वे ही प्रभु द्वारा निर्धारित गुरु होंगे ।कृपा कर इस अज्ञानी को शिष्या के रूप में स्वीकार करें ! मीरा ने रैदास जी के चरणों में गिर प्रणाम किया तो उसकी आँखों से आँसू निकल उनके चरणों पर गिर पड़े ।

मीरा ने जब इतनी दैन्यता और क्रन्दन करते हुए रैदास जी से उसे शिष्या स्वीकार करने की प्रार्थना की तो वे भी भावुक हो उठे । सन्त ने मीरा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, बेटी ! तुम्हें कुछ अधिक कहने- सुनने की आवश्यकता नहीं है ।नाम ही निसेनी (सीढ़ी ) है और लगन ही प्रयास , अगर दोनों ही बढ़ते जायें तो अगम अटारी घट में प्रकाशित हो जायेगी ।इन्हीं के सहारे उसमें पहुँच अमृतपान कर लोगी ।समय जैसा भी आये, पाँव पीछे न हटे , फिर तो बेड़ा पार है । इतना कह वह स्नेह से मुस्कुरा दिये । मुझे कुछ प्रसाद देने की कृपा करें । मीरा ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की ।

सन्त ने एक क्षण सोचा ।फिर गले से अपनी जप- माला और इकतारा मीरा के फैले हाथों पर रख दिये ।मीरा ने उन्हें सिर से लगाया , माला गले में पहन ली और इकतारे के तार पर पर उँगली रखकर उसने रैदास जी की ओर देखा ।उसके मन की बात समझ कर उन्होंने इकतारा मीरा के हाथ से लिया और बजाते हुये गाने लगे.

प्रभुजी ,तुम चन्दन हम पानी ।
जाकी अँग अँग बास समानी ॥
प्रभुजी ,तुम घन बन हम मोरा ।
जैसे चितवत चन्द्र चकोरा ॥
प्रभुजी , तुम दीपक हम बाती ।
जाकी जोत बरे दिन राती ॥
प्रभुजी , तुम मोती हम धागा ।
जैसे सोनहि मिलत सुहागा ॥
प्रभुजी ,तुम स्वामी हम दासा ।
ऐसी भगति करे रैदासा ॥

रैदास जी ने भजन पूरा कर अपना इकतारा पुनः मीरा को पकड़ा दिया, जो उसने जीवन पर्यन्त गुरु के आशीर्वाद की तरह अपने साथ सहेज कर रखा ।गुरु जी के इंगित करने पर मीरा ने उसे बजाते हुए गायन प्रारम्भ किया

कोई कछु कहे मन लागा ।
ऐसी प्रीत लगी मनमोहन ,
ज्युँ सोने में सुहागा ।
जनम जनम का सोया मनुवा ,
सतगुरू सबद सुन जागा ।
मात- पिता सुत कुटुम्ब कबीला,
टूट गया ज्यूँ तागा ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
भाग हमारा जागा ।
कोई कुछ कहे मन लागा ॥

चारों ओर दिव्य आनन्द सा छा गया ।उपस्थित सब जन एक निर्मल आनन्द धारा में अवगाहन कर रहे थे ।मीरा ने पुनः आलाप की तान ली

पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो ।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरू ,
किरपा कर अपनायो ॥
जनम जनम की पूँजी पाई ,
जग में सभी खुवायो (खो दिया)॥
खरच न खूटे , चोर न लूटे ,
दिन दिन बढ़त सवायो ॥
सत की नाव खेवटिया सतगुरू,
भवसागर तैरायो ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
हरख हरख जस गायो ॥
पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो ॥
रैदास जी मीरा का भजन सुनकर अत्यंत भावविभोर हो उठे ।वे मीरा सी शिष्या पाकर स्वयं को धन्य मान रहे थे ।उन्होंने उसे कोटिश आशीर्वाद दिया ।दूदाजी भी संत की कृपा पाकर कृत कृत्य हुये ।


आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय


मीरा चरित्र - भाग ६

॥ जय श्री राम ॥

सखियों -दासियों के सहयोग से मीरा ने आज श्याम कुन्ज को फूल मालाओं की बन्दनवार से अत्यंत सजा दिया था । अपने गिरधर गोपाल का बहुत आकर्षक श्रंगार किया । सब कार्य सुंदर रीति से कर मीरा ने तानपुरा उठाया ।

आय मिलो मोहिं प्रीतम प्यारे । हमको छाँड़ भये क्यूँ न्यारे ॥
बहुत दिनों से बाट निहारूँ । तेरे ऊपर तन मन वारूँ ॥
तुम दरसन की मो मन माहीं । आय मिलो किरपा कर साई ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर । आय दरस द्यो सुख के सागर ॥

मीरा की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई ।रोते रोते मीरा फिर गाने लगी ।चम्पा ने मृदंग और मिथुला ने मंजीरे संभाल लिए .

जोहने गुपाल करूँ ऐसी आवत मन में ।
अवलोकत बारिज वदन बिबस भई तन में ॥
मुरली कर लकुट लेऊँ पीत वसन धारूँ ।
पंखी गोप भेष मुकुट गोधन सँग चारूँ ॥
हम भई गुल काम लता वृन्दावन रैना ।
पसु पंछी मरकट मुनि श्रवण सुनत बैना ॥
गुरूजन कठिन कानिं कासों री कहिये ।
मीरा प्रभु गिरधर मिली ऐसे ही रहिये ॥

गान विश्रमित हुआ तो मीरा की निमीलित पलकों तले लीला  सृष्टि विस्तार पाने लगी- वह गोप सखा के वेश में आँखों पर पट्टी बाँधे श्याम सुंदर को ढूँढ रही है । उसके हाथ में ठाकुर को ढूँढते ढूँढते कभी तो वृक्ष का तना , कभी झाड़ी के पत्ते और कभी गाय का मुख आ जाता है । वह थक गयी ,व्याकुल हो पुकार उठी - कहाँ हो गोविन्द ! आह , मैं ढूँढ नहीं पा रही हूँ । श्याम सुन्दर ! कहाँ हो.कहाँ हो.कहाँ हो..?

श्री कृष्ण जन्माष्टमी का समय है । मीरा श्याम कुन्ज में ठाकुर के आने की प्रतीक्षा में गायन कर रही है ।उसे लीला अनुभूति हुई कि वह गोप सखा वेश में आँखों पर पट्टी बाँधे श्यामसुन्दर को ढूँढ रही है । तभी गढ़ पर से तोप छूटी ।चारभुजानाथ के मन्दिर के नगारे , शंख , शहनाई एक साथ बज उठे ।समवेत स्वरों में उठती जय ध्वनि ने दिशाओं को गुँजा दिया   चारभुजानाथ की जय ! गिरिधरण लाल की जय ।

उसी समय मीरा ने देखा  जैसे सूर्य -चन्द्र भूमि पर उतर आये हो , उस महाप्रकाश के मध्य शांत स्निग्ध ज्योति स्वरूप मोर मुकुट पीताम्बर धारण किए सौन्दर्य -सुषमा- सागर श्यामसुन्दर खड़े मुस्कुरा रहे हैं ।वे आकर्ण दीर्घ दृग ,उनकी वह ह्रदय को मथ देने वाली दृष्टि , वे कोमल अरूण अधर -पल्लव , बीच में तनिक उठी हुई सुघड़ नासिका , वह स्पृहा -केन्द्र विशाल व क्ष , पीन प्रलम्ब भुजायें ,कर-पल्लव , बिजली सा कौंधता पीताम्बर और नूपुर मण्डित चारू चरण ।एक दृष्टि में जो देखा जा सका. फिर तो दृष्टि तीखी धार -कटार से उन नेत्रों में उलझ कर रह गई ।क्या हुआ ? क्या देखा ? कितना समय लगा ? कौन जाने ?समय तो बेचारा प्रभु और उनके प्रेमियों के मिलन के समय प्राण लेकर भाग छूटता है ।

इतनी व्याकुलता क्यों , क्या मैं तुमसे कहीं दूर था ?
श्यामसुन्दर ने स्नेहासिक्त स्वर में पूछा । मीरा प्रातःकाल तक उसी लीला अनुभूति में ही मूर्छित रही ।सबह मूर्छा टूटने पर उसने देखा कि सखियाँ उसे घेर करके कीर्तन कर रही है ।उसने तानपुरा उठाया ।सखियाँ उसे सचेत हुई जानकार प्रसन्न हुई ।कीर्तन बन्द करके वे मीरा का भजन सुनने लगी  

म्हाँरा ओलगिया घर आया जी ।
तन की ताप मिटी सुख पाया ,  हिलमिल मंगल गाया जी ॥
घन की धुनि सुनि मोर मगन भया, यूँ मेरे आनन्द छाया जी ।
मगन भई मिल प्रभु अपणा सूँ ,  भौं का दरद मिटाया जी ॥
चंद को निरख कुमुदणि फूलै , हरिख भई मेरी काया जी ।
रगरग सीतल भई मेरी सजनी , हरि मेरे महल सिधाया जी ॥
सब भक्तन का कारज कीन्हा , सोई प्रभु मैं पाया जी ।
मीरा बिरहणि सीतल भई , दुख द्वदं दूर नसाया जी ॥
म्हाँरा ओलगिया घर आयाजी ॥

इस प्रकार आनन्द ही आनन्द में अरूणोदय हो गया ।श्री कृष्ण जनमोत्सव सम्पन्न होने के पश्चात बाबा बिहारी दास जी ने वृन्दावन जाने की इच्छा प्रकट की ।भारी मन से दूदाजी ने स्वीकृति दी ।मीरा को जब मिथुला ने बाबा के जाने के बारे में बताया तो उसका मन उदास हो गया ।वह बाबा के कक्ष में जाकर उनके चरणों में प्रणाम कर रोते रोते बोली , बाबा आप पधार रहें है ।  हाँ बेटी ! वृद्ध हुआ अब तेरा यह बाबा ।अंतिम समय तक वृन्दावन में श्री राधामाधव के चरणों में ही रहना चाहता हूँ । बाबा ! मुझे यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।मुझे भी अपने साथ वृन्दावन ले चलिए न बाबा । मीरा ने दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर सुबकते हुए कहा ।

श्री राधे! श्री राधे! बिहारी दास जी कुछ बोल नहीं पाये ।उनकी
आँखों से भी अश्रुपात होने लगा ।कुछ देर पश्चात उन्होंने मीरा के सिर पर हाथ फेरते हुये कहा - हम सब स्वतन्त्र नहीं है पुत्री ।वे जब जैसा रखना चाहे उनकी इच्छा में ही प्रसन्न रहे ।भगवत्प्रेरणा से ही मैं इधर आया ।सोचा भी नहीं था कि शिष्या के रूप में तुम जैसा रत्न पा जाऊँगा ।तुम्हारी शिक्षा में तो मैं निमित्त मात्र रहा ।तुम्हारी बुद्धि , श्रद्धा ,लग्न और भक्ति ने मुझे सदा ही आश्चर्य चकित किया है ।तुम्हारी सरलता , भोलापन और विनय ने ह्रदय के वात्सल्य पर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया ।राव दूदाजी के प्रेम , विनय और संत -सेवा के भाव इन सबने मुझ विरक्त को भी इतने दिन बाँध रखा ।

किन्तु बेटा ! जाना तो होगा ही ।  बाबा ! मैं क्या करूँ ? मुझे आप आशीर्वाद दीजिये कि. ।मीरा की रोते रोते हिचकी बँध गई., मुझे भक्ति प्राप्त हो, अनुराग प्राप्त हो , श्यामसुन्दर मुझ पर प्रसन्न हो ।उसने बाबा के चरण पकड़ लिए । बाबा कुछ बोल नहीं पाये, बस उनकी आँखों से झर झर आँसू चरणों पर पड़ी मीरा को सिक्त करते रहे ।फिर भरे कण्ठ से बोले, श्री किशोरी जी और श्यरश्यामसुन्दर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करे ।पर मैं एक तरफ जब तुम्हारी भाव भक्ति और दूसरी ओर समाज के बँधनों का विचार करता हूँ तो मेरे प्राण व्याकुल हो उठते है ।बस प्रार्थना करता हूं कि तुम्हारा मंगल हो ।चिन्ता न करो पुत्री ! तुम्हारे तो रक्षक स्वयं गिरधर है ।


आगामी अंको में जारी
नमो राघवाय

सोमवार, 18 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ५

॥जय श्री राम॥

आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी है ।राजमन्दिर में और श्याम कुन्ज में प्रातःकाल से ही उत्सव की तैयारियाँ होने लगी ।मीरा का मन विकल है पर कहीं आश्वासन भी है कि प्रभु आज अवश्य पधारेगें ।बाहर गये हुये लोग , भले ही नौकरी पर गये हो , सभी पुरुष तीज तक घर लौट आते हैं ।फिर आज तो उनका जन्मदिन है । कैसे न आयेंगे भला ? पति के आने पर स्त्रियाँ कितना श्रृगांर करती है -तो मैं क्या ऐसे ही रहूँगी ? तब मैं भी क्यों न पहले से ही श्रृगांर धारण कर लूँ ? कौन जाने , कब पधार जावें वे !

मीरा ने मंगला से कहा , जा मेरे लिए उबटन ,सुगंध और श्रृगांर की सब सामग्री ले आ । और चम्पा से बोली कि माँ से जाकर सबसे सुंदर काम वाली पोशाक और आभूषण ले आये । सभी को प्रसन्नता हुईं कि मीरा आज श्रृगांर कर रही है । बाबा बिहारी दास जी की इच्छा थी कि आज रात मीरा चारभुजानाथ के यहाँ होने वाले भजन कीर्तन में उनका साथ दें । बाबा की इच्छा जान मीरा असमंजस में पड़ गई ।थोड़े सोचने के बाद बोली - बाबा रात्रि के प्रथम प्रहर में राजमन्दिर में रह आपकी आज्ञा का पालन करूँगी और फिर अगर आप आज्ञा दें तो मैं जन्म के समय श्याम कुन्ज में आ जाऊँ ? अवश्य बेटी ! उस समय तो तुम्हें श्याम कुन्ज में ही होना चाहिए बाबा ने मीरा के मन के भावों को समझते हुये कहा । मेरी तो यह इच्छा थी कि तुम मेरे साथ एक बार मन्दिर में गाओ । बड़ी होने पर तो तुम महलों में बंद हो जाओगी ।कौन जाने , ऐसा सुयोग फिर कब मिले !

मीरा आज नख से शिख तक श्रंगार किये मीरा चारभुजानाथ के मन्दिर में राव दूदाजी और बाबा बिहारी दास जी के बीच तानपुरा लेकर बैठी हुई पदगायन में बाबा का साथ दे रही है ।मीरा के रूप सौंदर्य के अतुलनीय भण्डार के द्वार आज श्रृगांर ने उदघाटित कर दिए थे । नवबालवधु के रूप में मीरा को देख कर सभी राजपुरूष के मन में यह विचार स्फुरित होने लगा कि मीरा किसी बहुत गरिमामय घर -वर के योग्य है । वीरमदेव जी भी आज अपनी बेटी का रूप देख चकित रह गये और मन ही मन दृढ़ निश्चय किया कि चित्तौड़ की महारानी का पद ही मीरा के लिए उचित स्थान है ।

बेटी ! अब तुम अपने संगीत के द्वारा सेवा करो । बाबा बिहारी दास जी ने गर्व से अपनी योग्य शिष्या को कहा । मीरा ने उठकर पहले गुरुचरणों में प्रणाम किया ।फिर चारभुजानाथ और दूदाजी आदि बड़ो को प्रणाम कर गायन प्रारम्भ किया ।आलाप की तान ले मीरा ने सम्पूर्ण वातावरण को बाँध दिया..

बसो मेरे नैनन में नन्दलाल ।
मोहिनी मूरत साँवरी सूरत, नैना बने विशाल ।
अधर सुधारस मुरली राजत उर वैजंती माल॥
छुद्र घंटिका कटितट शोभित नूपुर सबद रसाल ।
मीरा प्रभु संतन सुखदायी, भगत बछल गोपाल ॥

वहाँ उपस्थित सब भक्त जन मीरा के गायन से मन्त्रमुग्ध हो गये । बिहारी दास जी सहित दूदाजी मीरा का वह स्वरचित पद श्रवण कर चकित एवं प्रसन्न हो उठे । दोनों आनन्दित हो गदगद स्वर में बोले - वाह बेटी ! मीरा ने संकोच वश अपने नेत्र झुका लिये ।बाबा ने उमंग से मीरा से एक और भजन गाने का आग्रह किया तो उसने फिर से तानपुरा उठाया ।अबकि मीरा ने ठाकुर जी की करूणा का बखान करते हुये पद गाया ।

सुण लीजो बिनती मोरी
मैं सरण गही प्रभु तोरी ।
तुम तो पतित अनेक उधारे
भवसागर से तारे ।
मीरा प्रभु तुम्हरे रंग राती
या जानत सब दुनियाई ॥

दूदाजी नेत्र मूंद कर एकाग्र होकर श्रवण कर रहे थे ।भजन पूरा होने पर उन्होंने आँखें खोली, प्रशंसा भरी दृष्टि से मीरा की ओर देखा और बोले , आज मेरा जीवन धन्य हो गया । बेटा , तूने अपने वंश -अपने पिता पितृव्यों को धन्य कर दिया । फिर मीरा के सिर पर हाथ रखते हुए अपने वीर पुत्रों को देखते हुये अश्रु विगलित स्वर से बोले , इनकी प्रचण्ड वीरता और देश प्रेम को कदाचित लोग भूल जायें, पर मीरा तेरी भक्ति और तेरा नाम अमर रहेगा बेटा अमर रहेगा ।उनकी आँखें छलक पड़ी ।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥ध्रु०॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

यूँ तों श्याम कुन्ज में अपने गिरधर को रिझाने के लिये प्रतिदिन ही गाती थी -पर आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन राजमन्दिर में सार्वजनिक रूप से उसने पहली बार ही गायन किया ।सब घर परिवार और बाहर के मीरा की असधारण भक्ति एवं संगीत प्रतिभा देख आश्चर्य चकित हो गये ।

अतिशय भावुक हुये दूदाजी को प्रणाम करते हुए मीरा बोली , बाबोसा मैं तो आपकी हूँ , जो कुछ है वह तो आपका ही है और रहा संगीत , यह तो बाबा का प्रसाद है । मीरा ने बाबा बिहारी दास की ओर देखकर हाथ जोड़े । थोड़ा रूक कर वह बोली - अब मैं जाऊँ बाबा ? जाओ बेटी ! श्री किशोरी जी तुम्हारा मनोरथ सफल करें । भरे कण्ठ से बाबा ने आशीर्वाद दिया ।

सभी को प्रणाम कर मीरा अपनी सखियों -दासियों के साथ श्याम कुन्ज चल दी । बाबा बिहारी दास जी का आशीर्वाद पाकर वह बहुत प्रसन्न थी , फिर भी रह रह कर उसका मन आशंकित हो उठता था- कौन जाने , प्रभु इस दासी को भूल तो न गये होंगे ? किन्तु नहीं , वे विश्वम्बर है , उनको सबकी खबर है , पहचान है ।आज अवश्य पधारेगें अपनी इस चरणाश्रिता को अपनाने । इसकी बाँह पकड़ कर भवसागर में डूबती हुई को ऊपर उठाकर  । आगे की कल्पना कर वह आनन्दानुभूति में खो जाती ।


आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

रविवार, 17 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ४

॥जय श्री राम॥

मीरा की भक्ति और भजन में बढ़ती रूचि देखकर रनिवास में चिन्ता व्याप्त होने लगी । एक दिन वीरमदेव जी (मीरा के सबसे बड़े काका ) को उनकी पत्नी श्री गिरिजा जी ने कहा , मीरा दस वर्ष की हो गई है ,इसकी सगाई  सम्बन्ध की चिन्ता नहीं करते आप ? वीरमदेव जी बोले , चिन्ता तो होती है पर मीरा का व्यक्तित्व , प्रतिभा और रूचि असधारण है फिर बाबोसा मीरा के ब्याह के बारे में कैसा सोचते हैपूछना पड़ेगा । बेटी की रूचि साधारण हो याँ असधारण  पर विवाह तो करना ही पड़ेगा  बड़ी माँ ने कहा । पर मीरा के योग्य कोई पात्र ध्यान में हो तो ही मैं अन्नदाता हुक्म से बात करूँ । एक पात्र तो मेरे ध्यान में है । मेवाड़ के महाराज कुँवर और मेरे भतीजे भोजराज । क्या कहती हो , हँसी तो नहीं कर रही ? अगर ऐसा हो जाये तो हमारी बेटी के भाग्य खुल जाये ।वैसे मीरा है भी उसी घर के योग्य । प्रसन्न हो वीरमदेव जी ने कहा । गिरिजा जी ने अपनी तरफ़ से पूर्ण प्रयत्न करने का आश्वासन दिया ।

मीरा की सगाई की बात मेवाड़ के महाराज कुंवर से होने की चर्चा रनिवास में चलने लगी । मीरा ने भी सुना । वह पत्थर की मूर्ति की तरह स्थिर हो गई थोड़ी देर तक । वह सोचने लगी -माँ ने ही बताया था कि तेरा वर गिरधर गोपाल है-और अब माँ ही मेवाड़ के राजकुमार के नाम से इतनी प्रसन्न है , तब किससे पूछुँ ? वह धीमे कदमों से दूदाजी के महल की ओर चल पड़ी ।

पलंग पर बैठे दूदाजी जप कर रहे थे ।मीरा को यूँ अप्रसन्न सा देख बोले , क्या बात है बेटा ? बाबोसा ! एक बेटी के कितने बींद होते है ? दूदाजी ने स्नेह से मीरा के सिर पर हाथ रखा और हँस कर बोले , क्यों पूछती हो बेटी ! वैसे एक बेटी के एक ही बींद होता है ।एक बींद के बहुत सी बीनणियाँ तो हो सकती है पर किसी भी तरह एक कन्या के एक से अधिक वर नहीं होते ।पर क्यों ऐसा पूछ रही हो ?

बाबोसा ! एक दिन मैंने बारात देख माँ से पूछा था कि मेरा बींद कौन है ? उन्होंने कहा कि तेरा बींद गिरधर गोपाल है । और आज आज । उसने हिलकियों के साथ रोते हु ए अपनी बात पूरी करते हुये कहा- आज भीतर सब मुझे मेवाड़ के राजकुवंर को ब्याहने की बात कर रहे है ।

दूदाजी ने अपनी लाडली को चुप कराते हुए कहा- तूने भाबू से
पूछा नहीं ? पूछा ! तो वह कहती है कि- वह तो तुझे बहलाने के लिए कहा था । पीतल की मूरत भी कभी किसी का पति होती है ? अरी बड़ी माँ के पैर पूज । यदि मेवाड़ की राजरानी बन गई तो भाग्य खुल गया समझ । आप ही बताईये बाबोसा ! मेरे गिरधर क्या केवल पीतल की मूरत है ? संत ने कहा था न कि यह विग्रह (मूर्ति) भगवान की प्रतीक है । प्रतीक वैसे ही तो नहीं बन जाता ? कोई हो , तो ही उसका प्रतीक बनाया जा सकता है ।जैसे आपका चित्र कागज़ भले हो , पर उसे कोई भी देखते ही कह देगा कि यह दूदाजी राठौड़ है । आप है , तभी तो आपका चित्र बना है ।यदि गिरधर नहीं है तो फिर उनका प्रतीक कैसा ?

भाबू कहती है-भगवान को किसने देखा है ? कहाँ है ? कैसे है ? मैं कहती हूँ बाबोसा वो कहीं भी हों , कैसे भी हो , पर हैं , तभी तो मूरत बनी है , चित्र बनते है ।ये शास्त्र , ये संत सब झूठे है क्या ? इतनी बड़ी उम्र में आप क्यों राज्य का भार बड़े कुंवरसा पर छोड़कर माला फेरते है ? क्यों मन्दिर पधारते है ? क्यों सत्संग करते है ? क्यों लोग अपने प्रियजनों को छोड़ कर उनको पाने के लिए साधु हो जाते है ? बताईये न बाबोसा - मीरा ने रोते रोते कहा ।

राव दूदाजी अपनी दस वर्ष की पौत्री मीरा की बातें सुनकर चकित रह गये ।कुछ क्षण तो उनसे कुछ बोला नहीं गया ।आप
कुछ तो कहिये बाबोसा ! मेरा जी घबराता है ।किससे पूछुँ यह सब ? भाबू ने पहले मुझे क्यों कहा कि गिरधर ही मेरे वर है और अब स्वयं ही अपने कहे पर पानी फेर रही है ? जो हो ही नहीं सकता , उसका क्या उपाय ? आप ही बताईये -क्या तीनों लोको के धणी (स्वामी) से भी बड़ा मेवाड़ का राजकुमार है ? और यदि है तो होने दो , मुझे नहीं चाहिए । तू रो मत बेटा !
धैर्य धर !उन्होने दुपट्टे के छोर से मीरा का मुँह पौंछा -तू चिन्ता मत कर ।मैं सबको कह दूँगा कि मेरे जीते जी मीरा का विवाह नहीं होगा तेरे वर गिरधर गोपाल हैं और वही रहेंगे , किन्तु मेरी लाड़ली ! मैं बूढ़ा हूँ । कै दिन का मेहमान ? मेरे मरने के पश्चात यदि ये लोग तेरा ब्याह कर दें तो तू घबराना मत । सच्चा पति तो मन का ही होता है । तन का पति भले कोई बने , मन का पति ही पति है । गिरधर तो प्राणी मात्र का धणी है , अन्तर्यामी है उनसे तेरे मन की बात छिपी तो नहीं है बेटा ।तू निश्चिंत रह । सच फरमा रहे है , बाबोसा ? सर्व साँची बेटा । तो फिर मुझे तन का पति नहीं चाहिए ।मन का पति ही पर्याप्त है ।दूदाजी से आश्वासन पाकर मीरा के मन को राहत मिली ।

दूदाजी के महल से मीरा सीधे श्याम कुन्ज की ओर चली ।कुछ क्षण अपने प्राणाराध्य गिरधर गोपाल की ओर एकटक देखती रही  ।फिर तानपुरा झंकृत होने लगा आलाप लेकर वह गाने लगी
आओ मनमोहना जी, जोऊँ थाँरी बाट ।
खान पान मोहि नेक न भावे,नैणन लगे कपाट॥
तुम आयाँ बिन सुख नहीं मेरेेेे,दिल में बहुत उचाट ।
मीरा कहे मैं भई रावरी, छाँड़ो नाहिं निराट॥

भजन पूरा हुआ तो अधीरतापूर्वक नीचे झुक कर दोनों भुजाओं में सिंहासन सहित अपने ह्रदयधन को बाँध चरणों में सिर टेक दिया नेत्रों से झरते आँसू उनका अभिषेक करने लगे । ह्रदय पुकार रहा था-आओ सर्वस्व ! इस तुच्छ दासी की आतुर प्रतीक्षा सफल कर दो ।आज तुम्हारी साख और प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है ।

उसे फूट फूट कर रोते देख मिथुला ने धीरज धराया ।कहा कि, प्रभु तो अन्तर्यामी है , आपकी व्यथा इनसे छिपी नहीं है । मिथुला ,तुम्हें लगता है वे मेरी सुध लेंगे ? वे तो बहुत बड़े है  ।मेरी क्या गिनती ? मुझ जैसे करोड़ों जन बिलबिलाते रहते है । किन्तु मिथुला ! मेरे तो केवल वही एक अवलम्ब है ।न सुने, न आयें , तब भी मेरा क्या वश है ? मीरा ने मिथुला की गोद में मुँह छिपा लिया ।

पर आप क्यों भूल जाती है बाईसा कि वे भक्तवत्सल है , करूणासागर है , दीनबन्धु है ।भक्त की पीड़ा वे नहीं सह पाते -दौड़े आते है । किन्तु मैं भक्त कहाँ हूँ मिथुला ? मुझसे भजन बनता ही कहाँ है ? मुझे तो केवल वह अच्छे लगते है ।वे मेरे पति हैं -मैं उनकी हूँ ।वे क्या कभी अपनी इस दासी को अपनायेगें ? उनके तो सोलह हज़ार एक सौ आठ पत्नियाँ है उनके बीच मेरी प्रेम हीन रूखी सूखी पुकार सुन पायेंगे क्या ? तुझे क्या लगता है मिथुला ! वे कभी मेरी ओर देखेंगे भी क्या ? मीरा अचेत हो मिथुला की गोद में लुढ़क गई ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

शनिवार, 16 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग ३

॥जय श्री राम॥

महल के परकोटे में लगी फुलवारी के मध्य गिरधर गोपाल के लिए मन्दिर बन कर दो महीनों में तैयार हो गया । धूमधाम से गिरधर गोपाल का गृह प्रवेश और विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा हुईं । मन्दिर का नाम रखा गया श्याम कुन्ज। अब मीरा का अधिकतर समय श्याम कुन्ज में ही बीतने लगा ।

ऐसे ही धीरेधीरे समय बीतने लगा ।मीरा पूजा करने के पश्चात् भी श्याम कुन्ज में ही बैठे बैठे. सुनी और पढ़ी हुई लीलाओं के चिन्तन में प्रायः खो जाती । वर्षा के दिन थे ।चारों ओर हरितिमा छायी हुई थीं ।ऊपर गगन में मेघ उमड़ घुमड़ कर आ रहे थे ।आँखें मूँदे हुये मीरा गिरधर के सम्मुख बैठी है । बंद नयनों के समक्ष उमड़ती हुई यमुना के तट पर मीरा हाथ से भरी हुई मटकी को थामें बैठी है । यमुना के जल में श्याम सुंदर की परछाई देख वह पलक झपकाना भूल गई ।यह रूप -ये कारे कजरारे दीर्घ नेत्र । मटकी हाथ से छूट गई और उसके साथ न जाने वह भी कैसे जल में जा गिरी । उसे लगा कोई जल में कूद गया और फिर दो सशक्त भुजाओं ने उसे ऊपर उठा लिया और घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुस्कुरा दिया । वह यह निर्णय नहीं कर पाई कि
कौन अधिक मारक है दृष्टि याँ मुस्कान ? निर्णय कैसे हो भी कैसे ? बुद्धि तो लोप हो गई, लज्जा ने देह को जड़ कर दिया और मन -? मन तो बैरी बन उनकी आँखों में जा समाया था  । उसे शिला के सहारे घाट पर बिठाकर वह मुस्कुराते हुए जल से उसका घड़ा निकाल लाये । हंसते हुये अपनत्व से कितने ही प्रश्न पूछ डाले उन्होंने ब्रज भाषा में । अमृत सी वाणी वातावरण में रस सी घोलती प्रतीत हुईं ।

थोड़ा विश्राम कर ले, फिर मैं तेरो घड़ो उठवाय दूँगो । कहा नाम है री तेरो ? बोलेगी नाय ? मो पै रूठी है क्या ? भूख लगी है का ? तेरी मैया ने कछु खवायो नाय ? ले , मो पै फल है ।खावेगी ?

उन्होंने फेंट से बड़ा सा अमरूद और थोड़े जामुन निकाल कर मेरे हाथ पर धर दिये  ले खा । मैं क्या कहती , आँखों से दो आँसू ढुलक पड़े । लज्जा ने जैसे वाणी को बाँध लिया था ।

कहा नाम है तेरो ?
मीरा बहुत खींच कर बस इतना ही कह पाई ।

वे खिलखिला कर हँस पड़े । कितना मधुर स्वर है तेरो री ।

श्याम सुंदर ! कहाँ गये प्राणाधार ! वह एकाएक चीख उठी ।समीप ही फुलवारी से चम्पा और चमेली दौड़ी आई और देखा मीरा अतिश य व्या कुल थीं और आँखों से आँसू झर रहे थे ।दोनों ने मिल कर शैय्या बिछाई और उस पर मीरा को यत्न से सुला दिया । सांयकाल तक जाकर मीरा की स्थिति कुछ सुधरी तो वह तानपुरा ले गिरधर के सामने जा बैठी ।फिर ह्रदय के उदगार प्रथम बार पद के रूप में प्रसरित हो उठे

मेहा बरसबों करे रे ,
आज तो रमैया म्हारें घरे रे,
नान्हीं नान्हीं बूंद मेघघन बरसे,
सूखा सरवर भरे रे ॥
घणा दिनाँ सूँ प्रीतम पायो,
बिछुड़न को मोहि डर रे ।
मीरा कहे अति नेह जुड़ाओ,
मैं लियो पुरबलो वर रे ॥

पद पूरा हुआ तो मीरा का ह्रदय भी जैसे कुछ हल्का हो गया । पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है वैसे ही मीरा की भाव सरिता भी शब्दों में ढलकर पदों के रूप में उद्धाम बह निकली । मीरा अभी भी तानपुरा ले गिरधर के सम्मुख श्याम कुन्ज में ही बैठी थी । वह दीर्घ कज़रारे नेत्र , वह मुस्कान , उनके विग्रह की मदमाती सुगन्ध और वह रसमय वाणी सब मीरा के स्मृति पटल पर बार बार उजागर हो रही थी ।

मेरे नयना निपट बंक छवि अटके ।
देखत रूप मदनमोहन को
पियत पीयूख न भटके ।
बारिज भवाँ अलक टेढ़ी मनो अति सुगन्ध रस अटके॥
टेढ़ी कटि टेढ़ी कर मुरली टेढ़ी पाग लर लटके ।
मीरा प्रभु के रूप लुभानी गिरधर नागर नटके ॥

मीरा को प्रसन्न देखकर मिथुला समीप आई और घुटनों के बल बैठकर धीमे स्वर में बोली जीमण पधराऊँ बाईसा ( भोजन लाऊँ )? अहा मिथुला ! अभी थोड़ा ठहर जा । मीरा के ह्रदय पर वही छवि बार बार उबर आती थी । फिर उसकी उंगलियों के स्पर्श से तानपुरे के तार झंकृत हो उठे

नन्दनन्दन दिठ (दिख) पड़िया माई,
साँ.वरो.. साँवरो ।
नन्दनन्दन दिठ पड़िया माई ,
छाड़या सब लोक लाज ,
साँवरो  साँवरो
मोरचन्द्र का किरीट, मुकुट जब सुहाई ।
केसररो तिलक भाल, लोचन सुखदाई ।
साँवरो ..साँ.वरो ।
कुण्डल झलकाँ कपोल, अलका लहराई,
मीरा तज सरवर जोऊ,मकर मिलन धाई ।
साँवरो . साँवरो ।
नटवर प्रभु वेश धरिया, रूप जग लुभाई,
गिरधर प्रभु अंग अंग ,मीरा बलि जाई ।
साँवरो . साँवरो ।

अरी मिथुला ,थोड़ा ठहर जा ।अभी प्रभु को रिझा लेने दे । कौन जाने ये परम स्वतंत्र हैं ..कब भाग निकले ? आज प्रभु आयें हैं तो यहीं क्यों न रख लें ?

मीरा जैसे धन्यातिधन्य हो उठी ।लीला चिन्तन के द्वार खुल गये और अनुभव की अभिव्यक्ति के भी । दिन पर दिन उसके भजन पूजन का चाव बढ़ने लगा । वह नाना भाँति से गिरधर का श्रृगांर करती कभी फूलों से और कभी मोतियों से । सुंदर पोशाकें बना धारण कराती । भाँति भाँति के भोग बना कर ठाकुर को अर्पण करती और पद गा कर नृत्य कर उन्हें रिझाती । शीत काल में उठ उठ कर उन्हें ओढ़ाती और गर्मियों में रात को जागकर पंखा झलती । तीसरे -चौथे दिन ही कोई न कोई उत्सव होता ।

नमो राघवाय

मीरा चरित्र - भाग २

॥जय श्री राम॥

कृपण के धन की भाँति मीरा ठाकुर जी को अपने से चिपकाये माँ के कक्ष में आ गई वहाँ एक झरोखे में लकड़ी की चौकी रख उस पर अपनी नई ओढ़नी बिछा ठाकुर जी को विराजमान कर दिया । थोड़ी दूर बैठ उन्हें निहारने लगी ।रह रह कर आँखों से आँसू झरने लगे ।

आज की इस उपलब्धि के आगे सारा जगत तुच्छ हो गया ।जो अब तक अपने थे वे सब पराये हो गये और आज आया हुआ यह मुस्कुराता हुआ चेहरा ऐसा अपना हुआ जैसा अब तक कोई न था ।सारी हंसी खुशी और खेल तमाशे सब कुछ इन पर न्यौछावर हो गया ह्रदय में मानों उत्साह उफन पड़ा कि ऐसा क्या करूँ, जिससे यह प्रसन्न हो ।

अहा, कैसे देख रहा है मेरी ओर ? अरे मुझसे भूल हो गई ।तुम तो भगवान हो और मैं आपसे तू तुम कर बात कर गई ।आप कितने अच्छे हैं जो स्वयं कृपा कर उस संत से मेरे पास चले आये ।मुझसे कोई भूल हो जाये तो आप रूठना नहीं , बस बता देना ।अच्छा बताओ उन महात्मा की याद तो नहीं आ रही -वह तो तुम्हें मुझे देते रो ही पड़े थे ।मैं तुम्हें अच्छे से रखूँगी- स्नान करवाऊँगी, सुलाऊँगी और ऐसे सजाऊँगी कि सब देखते ही रह जायेंगे ।मैं बाबोसा को कह कर तुम्हारे लिए सुंदर पलंग, तकिये, गद्दी ,और बढ़िया वागे (पोशाक) भी बनवा दूँगी । फिर कभी मैं तुम्हें फुलवारी में और कभी यहाँ के मन्दिर चारभुजानाथ के दर्शन को ले चलूँगी ।वे तो सदा ऐसे सजे रहते है जैसे अभीअभी बींद (दूल्हा ) बने हो ।

मीरा ने अपने बाल सरल ह्रदय से कितनी ही बातें ठाकुर का दिल लगाने के लिए कर डाली ।न तो उसे कुछ खाने की सुध थीं और न किसी और काम में मन लगता था ।माँ ने ठाकुर जी को देखा तो बोली ,क्या अपने ठाकुर जी को भी भूखा रखेगी? चल उठ भोग लगा और फिर तू भी प्रसाद पा ।
मीरा: अरे हाँ, यह बात तो मैं भूल ही गई ।

फिर उसने भोग की सब व्यवस्था की । दूदा जी का हाथ पकड़ उन्हें अपने ठाकुर जी के दर्शन के लिए लाते मीरा ने उन्हें सब बताया ।
मीरा: बाबोसा उन्होंने स्वयं मुझे ठाकुर जी दिए और कहा कि स्वप्न में ठाकुर जी ने कहा कि अब मैं मीरा के पास ही रहूँगा ।
दूदाजी ने दर्शन कर प्रणाम किया तो बोले , भगवान को लकड़ी की चौकी पर क्यों ?मैं आज ही चाँदी का सिंहासन मंगवा दूंगा।
मीरा: हाँ बाबोसा ।और मखमल की गादी तकिये, चाँदी के बर्तन ,वागे और चन्दन का हिंडोला भी ।
दूदाजी : अवश्य बेटा ।सब सांझ तक आ जायेगा ।
मीरा: पर बाबोसा , मैं उन महात्मा से ठाकुर जी का नाम पूछना भूल गई ।
दूदाजी :मनुष्य के तो एक नाम होता है ।पर भगवान के जैसे गुण अनन्त है वैसे उनके नाम भी । तुम्हें जो नाम प्रिय लगे , चुन ले ।
मीरा: हाँ आप नाम लीजिए ।
दूदाजी : ठीक है ।कृष्ण , गोविंद , गोपाल , माधव, केशव, मनमोहन , गिरधर.
बस, बस बाबोसा ।मीरा उतावली हो बोली-यह गिरधर नाम सबसे अच्छा है ।इस नाम का अर्थ क्या है?
दूदाजी ने अत्यंत स्नेह से ठाकुर जी की गिरिराज धारण करने की लीला सुनाई ।बस तभी से इनका नाम हुआ गिरधर।
मीरा भाव विभोर हो मूर्छित हो गई ।मीरा के यूँ अचेत होने से माँ कुछ व्याकुल सी गई और उन्होंने अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए सब बात रतन सिंह जी को बताई ।

वीर कुंवरी चाहती थी कि मीरा महल में और राजकुमारियों की तरह शस्त्राभ्यास , राजनीति , घुड़सवारी और घर गृहस्थी के कार्य सीखे ताकि वह ससुराल में जा कर प्रत्येक परिस्थिति का सामना कर सके । पर इधर दूदा जी के संरक्षण में मीरा ने योग और संगीत की शिक्षा प्रारम्भ करदी । मीरा का झुकाव ठाकुर पूजा में दिन प्रतिदिन बढ़ता देख माँ को स्वाभाविक चिन्ता होती ।
मीरा को पूजा और शिक्षा के बाद जितना अवकाश मिलता वह दूदाजी के साथ बैठ श्री गदाधर जोशी जी से श्री मदभागवत सुनती ।आने वाले प्रत्येक संत का सत्संग लाभ लेती ।उसके भक्तियुक्त प्रश्नों को सुनकर सब मीरा की प्रतिभा से आश्चर्यचकित हो जाते ।माँ को मीरा का यूँ संतो से बात करना उनके समक्ष भजन गाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था पर दूदाजी जी की लाडली मीरा को कुछ कहते भी नहीं बनता था ।दूदाजी की छत्रछाया में मीरा की भक्ति बढ़ने लगी ।

वृंदावन से पधारे बाबा बिहारीदास जी से मीरा की नियमित संगीत शिक्षा भी प्रारम्भ हो गई ।रनिवास में यही चर्चा होती- अहा , इस रूप गुण की खान को अन्नदाता हुकम न जाने क्यों साधु बना रहे है ? एक दिन मीरा दूदाजी से बोली , बाबोसा मुझे अपने गिरधर के लिए अलग कक्ष चाहिए , माँ के महल में छोरे  छोरी मिलकर उनसे मिलकर छेड़छाड़ करते है । दूदाजी ने अपनी लाडली के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा , हाँ बेटी क्यों नहीं । और दूसरे ही दिन महल के परकोटे में लगी फुलवारी के मध्य गिरधर गोपाल के लिए मन्दिर का निर्माण आरम्भ हो गया ।

एक दिन मीरा अपने गिरधर की पूजा से निवृत्त हो माँ के पास बैठी थीं तो अचानक बाहर से आने वाले संगीत से उसका ध्यान बंट गया ।वह झट से बाहर झरोखे से देखने लगी । भाबू! यह इतने लोग सज धज करके गाजे बाजे के साथ कहाँ जा रहे है ?
यह तो बारात आई है बेटा ! यह उत्तर देते माँ की आँखों में सौ सौ सपने तैर उठे ।बारात क्या होती है भाबू! यह इतने गहने पहन कर हाथी पर कौन बैठा है ? यह तो बींद (दूल्हा ) है बेटी ।बहू को ब्याहने जा रहा है ।अपने नगर सेठ जी की बेटी से विवाह होगा ।माँ ने दूल्हे की तरफ देखते हुये कहा ।

सभी बेटियों के वर होते है क्या ? सभी से ब्याह करने बींद आते है ? मीरा ने पूछा । हाँ बेटा ! बेटियों को तो ब्याहना ही पड़ता है ।बेटी बाप के घर में नहीं खटती ।चलो, अब नीचे चले ।माँ ने मीरा को झरोखे से उतारने का उपक्रम किया ।
मीरा ने अपनी ही धुन में मग्न कहा , तो मेरा बींद कहाँ है भाबू ?
तेरा वर? माँ हँस पड़ी । मैं कैसे जानूँ बेटी कि तेरा वर कहाँ है , जहाँ के विधाता ने लेख लिखे होंगे , वहीं जाना पड़ेगा ।
मीरा उछल कर दूर खड़ी हो गई और ज़िद करती हुईं बोली , आप मुझे बताइये मेरा वर कौन है ?उसकी आँखों में आँसू भर आये थे । माँ मीरा की ऐसी ज़िद देख आश्चर्य में पड़ गई और बात बनाते हुये बोली ,बड़ी माँ से याँ अपने बाबोसा से पूछना ।
नहीं मैं किसी से नहीं पूछुँगी, बस आप ही मुझे बतलाईये मीरा रोते रोते भूमि पर लोट गई ।

माँ ने मीरा को मनाते हुए उठाया और बोली , अच्छा मैं बताती हूँ तेरा वर ।तू रो मत ।इधर देख , ये कौन है ? ये ? ये तो मेरे गिरधर गोपाल है । अरी पागल ,यही तो तेरे वर है ।उठ, कब से एक ही बात की रट लगाई है माँ ने बहलाते हुये कहा ।
क्या सच बाभू ?,सुख भरे आश्चर्य से मीरा ने पूछा । सच नहीं तो क्या झूठ है ?चल मुझे देर हो रही है ।
मीरा ने गिरधर की तरफ़ ऐसे देखा , मानों आज उन्हें पहली बार ही देखा हो, ऐसे चाव और आश्चर्य से देखने लगी ।मीरा रोना भूल गई ।माँ का सहज ही कहा एक एक शब्द उसकी नियति भी थी और जीने के लिये सम्बल और आश्वासन भी ।

नमो राघवाय

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १

॥ जय श्री राम ॥

भक्तशिरोमणि राजपूत रमणी मीरा बाई का नाम  वैष्णव समाज में किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है । मीरा ने प्रकट होकर भारत वर्ष ,हिन्दु जाति और नारी कुल को पावन और धन्य कर दिया । प्रेम दीवानी मीरा बाई की भक्ति भावना प्रेम पथ पथिकों के लिए एक महान आदर्श है । जीवन अराध्य के श्री चरणों पर उनकी सर्वार्पण साधना  परायण जन के लिए प्रेरणा का अविरल स्त्रोत है । मीरा बाई की गुण गाथा प्रेमदान का गान कर आज लाखों जन भगवत्प्रेम को प्राप्त करते है, उनके प्रेमपूरित पुनीत पदों का गान कर अनगिनत नर-नारी भक्ति रस के पावन प्रवाह में बह जाते है । कुछ समय पूर्व श्री सद्गुरुदेव भगवान ने कुछ प्रश्नों का समाधान करते हुए बतलाया भी है की संत रैदास जी ने श्री मीराबाई जी को 'राम' नाम की ही दीक्षा दी थी । मीराबाई जी गुरु पूर्णिमा के अवसर पर संत रैदास जी से दीक्षा ग्रहण कर, इसे अपने इस पद में स्वयं स्वीकार भी करती हैं -

पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो। 
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु, 
किरपा कर अपनायो॥

पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो।

एक भक्त के स्वरूप में जितना दर्द , करूणा , समर्पण , तीव्र वैराग्य और ठाकुर के लिए जितना अपनत्व उनके गीतों में मिलता है  वह अपने आप में ही कसौटी है, उसकी तुलना कहीं भी नहीं ।

मीरा जी की कवित्व और गायन प्रतिभा स्वाभाविक थीं ।उनके गिरधर गोपाल के लिए गीत स्वतः सहज ही मुखरित होते थे ।उन्होंने स्वयं कभी भी अपने पदों को कहीं लिखा नहीं  ब्लकि उनकी अन्तरंगा दासियाँ ही प्रयत्न से उन गीतों को एक पोथी में लिख लिया करती थीं ।

परम भक्तिमती मीराबाई- जिनके जीवन का एक एक श्वास , शरीर की एक एक चेष्टा , चिन्तन का एक एक कण, ह्रदय का एक एक स्पन्दन , वाणी का एक एक शब्द अपने परमाराध्य गिरधर गोपाल के भाव सिंधु में निमग्न रहता था- उनके परमपावन श्री चरणों में मुझ अकिञ्चन का बार बार प्रणाम ।


आज से मीरा चरित्र नामक (६२ अंकीय) यह श्रृंखला सत्र प्रारम्भ किया जा रहा है। ऐसी भक्तिमयी मीरा बाई के दिव्य व्यक्तित्व को शब्दों की रूपरेखा में बाँधते हुये हम उनकी प्रेम साधना और उनके गीतों का गुण गान करने का प्रयास ठाकुर जी की कृपा से क्रमशः करेंगे । प्रतिदिन वैष्णव जनो के आनद हेतु एक अंश प्रसारित होगा जो चरित पूर्ण होने तक जारी रहेगा । आशा है श्री मीराबाई की कृपा हमपे भी होगी और हम भी अपने आराध्य श्री राघव सरकार की विमल भक्ति पा सकेंगे ।

॥श्री सीतारामाय समर्पणं॥

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॥ मीरा चरित ॥

॥परिचय॥

भाग एक

भारत के एक प्रांत राज्यस्थान का क्षेत्र है मारवाड़ -जो अपने वासियों की शूरता, उदारता, सरलता और भक्ति के लिये प्रसिद्ध रहा है ।मारवाड़ के शासक राव दूदा सिंह बड़े प्रतापी हुए । उनके चौथे पुत्र रत्नसिंह जी और उनकी पत्नी वीर कुंवरी जी के यहां मीरा का जन्म संवत 1561 (1504 ई०) में हुआ ।

राव दूदा जी जैसे तलवार के धनी थे, वै से ही वृद्धावस्था में उनमें भक्ति छलकी पड़ती थी । पुष्कर आने वाले अधिकांश संत मेड़ता आमंत्रित होते और सम्पूर्ण राजपरिवार सत्संग -सागर में अवगाहन कर धन्य हो जाता ।

मीरा का लालन पालन दूदा जी की देख रेख में होने लगा ।मीरा की सौंदर्य सुषमा अनुपम थी । मीरा के भक्ति संस्कारों को दूदा जी पोषण दे रहे थे । वर्ष भर की मीरा ने कितने ही छोटे छोटे कीर्तन दूदा जी से सीख लिए थे । किसी भी संत के पधारने पर मीरा दूदा जी की प्रेरणा से उन्हें अपनी तोतली भाषा में भजन सुनाती और उनका आशीर्वाद पाती । अपने बाबोसा की गोद में बैठकर शांत मन से संतो से कथा वार्ता सुनती ।

दूदा जी की भक्ति की छत्रछाया में धीरे धीरे मीरा पाँच वर्ष की हुई ।एक बार ऐसे ही मीरा राजमहल में ठहरे एक संत के समीप प्रातःकाल जा पहुँची ।वे उस समय अपने ठाकुर जी की पूजा कर रहे थे ।मीरा प्रणाम कर पास ही बैठ गई और उसने जिज्ञासा वश कितने ही प्रश्न पूछ डाले-यह छोटे से ठाकुर जी कौन है? ; आप इनकी कैसे पूजा करते है? संत भी मीरा के प्रश्नों का एक एक कर उत्तर देते गये ।फिर मीरा बोली , यदि यह मूर्ति आप मुझे दे दें तो मैं भी इनकी पूजा किया करूँगी । संत बोले ,नहीं बेटी ! अपने भगवान किसी को नहीं देने चाहिए ।वे हमारी साधना के साध्य है ।

मीरा की आँखें भर आई ।निराशा से निश्वास छोड़ उसने ठाकुर जी की तरफ़ देखा और मन ही मन कहा- यदि तुम स्वयं ही न आ जाओ तो मैं तुम्हें कहाँ से पाऊँ? और मीरा भरे मन से उस मूर्ति के बारे में सोचती अपने महल की ओर बढ़ गई.. ।

दूसरे दिन प्रातःकाल मीरा उन संत के निवास पर ठाकुर जी के दर्शन हेतु जा पहुँची ।मीरा प्रणाम करके एक तरफ बैठ गई ।
संत ने पूजा समापन कर मीरा को प्रसाद देते हुए कहा, बेटी , तुम ठाकुर जी को पाना चाहती हो न!
मीरा:- बाबा, किन्तु यह तो आपकी साधना के साध्य है (मीरा ने कांपते स्वर में कहा) ।
बाबा :- अब ये तुम्हारे पास रहना चाहते है- तुम्हारी साधना के साध्य बनकर , ऐसा मुझे इन्होने कल रात स्वप्न में कहा कि अब मुझे मीरा को दे दो ।( कहते कहते बाबा के नेत्र भर आये) ।इनके सामने किसकी चले ?
मीरा:- क्या सच? ( आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से बोली जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ ।)
बाबा: -(भरे कण्ठ से बोले ) हाँ ।पूजा तो तुमने देख ही ली है ।पूजा भी क्या  अपनी ही तरह नहलाना- धुलाना, वस्त्र पहनाना और श्रंगार करना , खिलाना -पिलाना ।केवल आरती और धूप विशेष है ।
मीरा:- किन्तु वे मन्त्र , जो आप बोलते है, वे तो मुझे नहीं आते ।
बाबा :- मन्त्रों की आवश्यकता नहीं है बेटी। ये मन्त्रो के वश में नहीं रहते। ये तो मन की भाषा समझते है। इन्हें वश में करने का एक ही उपाय है कि इनके सम्मुख ह्रदय खोलकर रखदो। कोई छिपाव या दिखावा नहीं करना। ये धातु के दिखते है पर है नहीं। इन्हें अपने जैसा ही मानना।
मीरा ने संत के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और जन्म जन्म के भूखे की भाँति अंजलि फैला दी ।संत ने अपने प्राणधन ठाकुर जी को मीरा को देते हुए उसके सिर पर हाथ रखकर गदगद कण्ठ से आशीर्वाद दिया -भक्ति महारानी अपने पुत्र ज्ञान और वैराग्य सहित तुम्हारे ह्रदय में निवास करें, प्रभु सदा तुम्हारे सानुकूल रहें ।
मीरा ठाकुर जी को दोनों हाथों से छाती से लगाये उन पर छत्र की भांति थोड़ी झुक गई और प्रसन्नता से डगमगाते पदों से वह अन्तःपुर की ओर चली ।


॥ नमो राघवाय ॥