सोमवार, 25 दिसंबर 2017

व्रत एवं त्योहार - वर्ष 2018

नमो राघवाये,
इस बार आने वाला नववर्ष 2018 कई मायनों में बहुत खास बन गया है। वर्ष की शुरुआत ही पूर्णिमा तिथि से हो रही है जो अपने आप में संकेत है कि आने वाला वर्ष आम जनता के लिए सुखद रहेगा।
आज की पोस्ट में हम बताएंगे कि इस वर्ष यानी कि 2018 के किस महीने में कौन सा व्रत या त्यौहार कब मनाया जाएगा ―

जनवरी माह :-
2 जनवरी (मंगलवार) - पौष पूर्णिमा व्रत
5 जनवरी (शुक्रवार) - संकष्टी चतुर्थी
12 जनवरी (शुक्रवार) - षटतिला एकादशी
14 जनवरी (रविवार) - मकर संक्रांति, पोंगल, उत्तरायण, प्रदोष व्रत (कृष्ण)
15 जनवरी (सोमवार) - मासिक शिवरात्रि
16 जनवरी (मंगलवार) - माघ अमावस्या, मौनी अमावस्या
22 जनवरी (सोमवार) - सरस्वती पूजा, बसंत पंचमी
28 जनवरी (रविवार) - जया एकादशी
29 जनवरी (सोमवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
31 जनवरी (बुधवार) - माघ पूर्णिमा व्रत, चंद्र ग्रहण

फरवरी माह :-
3 फरवरी (शनिवार) - संकष्टी चतुर्थी
11 फरवरी (रविवार) - विजया एकादशी
13 फरवरी (मंगलवार) - कुम्भ संक्रांति, मासिक शिवरात्रि, प्रदोष व्रत
14 फरवरी (बुधवार) - महाशिवरात्रि, ऋषिबोधोत्सव
15 फरवरी (गुरुवार) - फाल्गुन अमावस्या, सूर्य ग्रहण
26 फरवरी (सोमवार) - आमलकी एकादशी
27 फरवरी (मंगलवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)

मार्च माह :-
1 मार्च (गुरुवार) - होलिका दहन, फाल्गुन पूर्णिमा व्रत
2 मार्च (शुक्रवार) - होली
5 मार्च (सोमवार) - संकष्टी चतुर्थी
9 मार्च (शुक्रवार) - शीतला अष्टमी
13 मार्च (मंगलवार) - पापमोचिनी एकादशी
14 मार्च (बुधवार) - मीन संक्रांति, प्रदोष व्रत (कृष्ण)
15 मार्च (गुरुवार) - मासिक शिवरात्रि
17 मार्च (शनिवार) - चैत्र अमावस्या
18 मार्च (रविवार) - चैत्र नवरात्रि, उगाडी, गुड़ी पड़वा, घटस्थापना
25 मार्च (रविवार) - राम नवमी
26 मार्च (सोमवार) - चैत्र नवरात्रि पारणा
27 मार्च (मंगलवार) - कामदा एकादशी
29 मार्च (गुरुवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
31 मार्च (शनिवार) - हनुमान जयंती, चैत्र पूर्णिमा व्रत

अप्रैल माह :-
3 अप्रैल (मंगलवार) - संकष्टी चतुर्थी
12 अप्रैल (गुरुवार) - बरूथिनी एकादशी
13 अप्रैल (शुक्रवार) - प्रदोष व्रत (कृष्ण)
14 अप्रैल (शनिवार) - मासिक शिवरात्रि, मेष संक्रांति
16 अप्रैल (सोमवार) - वैशाख अमावस्या
18 अप्रैल (बुधवार) - अक्षय तृतीया
26 अप्रैल (गुरुवार) - मोहिनी एकादशी
27 अप्रैल (शुक्रवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
30 अप्रैल (सोमवार) - वैशाख पूर्णिमा व्रत

मई माह :-
3 मई (गुरुवार) - संकष्टी चतुर्थी
11 मई (शुक्रवार) - अपरा एकादशी
13 मई (रविवार) - मासिक शिवरात्रि, प्रदोष व्रत (कृष्ण)
15 मई (मंगलवार) - वृष संक्रांति, ज्येष्ठ अमावस्या
25 मई (शुक्रवार) - पद्मिनी एकादशी
26 मई (शनिवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
29 मई (मंगलवार) - अधिज्येष्ठ पूर्णिमा, पूर्णिमा व्रत

जून माह :-
2 जून (शनिवार) - संकष्टी चतुर्थी
10 जून (रविवार) - परम एकादशी
11 जून (सोमवार) - प्रदोष व्रत (कृष्ण)
12 जून (मंगलवार) - मासिक शिवरात्रि
13 जून (बुधवार) - अधिज्येष्ठ अमावस्या
15 जून (शुक्रवार) - मिथुन संक्रांति
23 जून (शनिवार) - निर्जला एकादशी
25 जून (सोमवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
28 जून (गुरुवार) - ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत

जुलाई माह :-
1 जुलाई (रविवार) - संकष्टी चतुर्थी
9 जुलाई (सोमवार) - योगिनी एकादशी
10 जुलाई (मंगलवार) - प्रदोष व्रत (कृष्ण)
11 जुलाई (बुधवार) - मासिक शिवरात्रि
13 जुलाई (शुक्रवार) - आषाढ़ अमावस्या
14 जुलाई (शनिवार) - जगन्नाथ रथ यात्रा
16 जुलाई (सोमवार) - कर्क संक्रांति
23 जुलाई (सोमवार) - अषाढ़ी एकादशी, देवशयनी एकादशी
24 जुलाई (मंगलवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
27 जुलाई (शुक्रवार) - आषाढ़ पूर्णिमा व्रत, गुरु-पूर्णिमा
31 जुलाई (मंगलवार) - संकष्टी चतुर्थी

अगस्त माह :-
7 अगस्त (मंगलवार) - कामिका एकादशी
9 अगस्त (गुरुवार) - मासिक शिवरात्रि, प्रदोष व्रत (कृष्ण)
11 अगस्त (शनिवार) - श्रावण अमावस्या
13 अगस्त (सोमवार) - हरियाली तीज
15 अगस्त (बुधवार) - नाग पंचमी
16 अगस्त (गुरुवार) - कल्कि जयंती
17 अगस्त (शुक्रवार) - सिंह संक्रांति
21 अगस्त (मंगलवार) - श्रावण पुत्रदा एकादशी
23 अगस्त (गुरुवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
24 अगस्त (शुक्रवार) - वरलक्ष्मी व्रत
25 अगस्त (शनिवार) - ओणम/थिरुवोणम
26 अगस्त (रविवार) - श्रावण पूर्णिमा व्रत, रक्षा बंधन
29 अगस्त (बुधवार) - कजरी तीज
30 अगस्त (गुरुवार) - संकष्टी चतुर्थी

सितंबर माह :-
1 सितंबर (शनिवार) - बलराम जयंती
2 सितंबर (रविवार) - श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
6 सितंबर (गुरुवार) - अजा एकादशी
7 सितंबर (शुक्रवार) - प्रदोष व्रत (कृष्ण)
8 सितंबर (शनिवार) - मासिक शिवरात्रि
9 सितंबर (रविवार) - भाद्रपद अमावस्या
12 सितंबर (बुधवार) - हरतालिका तीज
13 सितंबर (गुरुवार) - गणेश चतुर्थी
17 सितंबर (सोमवार) - कन्या संक्रांति, राधा अष्टमी, महालक्ष्मी व्रत प्रारम्भ, ध्रुव अष्टमी, विश्वकर्मा पूजा
20 सितंबर (गुरुवार) - परिवर्तिनी एकादशी
21 सितंबर (शनिवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
22 सितंबर (शनिवार) - वामन जयंती
23 सितंबर (रविवार) - अनंत चतुर्दशी, श्रीगणेश विसर्जन
25 सितंबर (मंगलवार) - भाद्रपद पूर्णिमा व्रत, पितृपक्ष, श्राद्ध प्रारम्भ
28 सितंबर (शुक्रवार) - संकष्टी चतुर्थी

अक्टूबर माह :-
2 अक्टूबर (मंगलवार) - महालक्ष्मी व्रत समाप्त
5 अक्टूबर (शुक्रवार) - इन्दिरा एकादशी
6 अक्टूबर (शनिवार) - प्रदोष व्रत (कृष्ण)
7 अक्टूबर (रविवार) - मासिक शिवरात्रि
8 अक्टूबर (सोमवार) - सर्वपितृ अमावस्या
9 अक्टूबर (मंगलवार) - अश्विन अमावस्या
10 अक्टूबर (बुधवार) - शरद नवरात्रि, घटस्थापना
13 अक्टूबर (शनिवार) - ललिता पञ्चमी
15 अक्टूबर (सोमवार) - दुर्गा पूजा की तिथियाँ, कल्पारम्भ
16 अक्टूबर (मंगलवार) - नवपत्रिका पूजा
17 अक्टूबर (बुधवार) - दुर्गा महा अष्टमी पूजा, तुला संक्रांति, दुर्गा महा नवमी पूजा
18 अक्टूबर (गुरुवार) - शरद नवरात्रि पारणा
19 अक्टूबर (शुक्रवार) - दशहरा, दुर्गा विसर्जन
20 अक्टूबर (शनिवार) - पापांकुशा एकादशी
22 अक्टूबर (सोमवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
23 अक्टूबर (मंगलवार) - कोजागरी, शरद पूर्णिमा, लक्ष्मी पूजा
24 अक्टूबर (बुधवार) - अश्विन पूर्णिमा व्रत
27 अक्टूबर (शनिवार) - करवा चौथ, संकष्टी चतुर्थी
31 अक्टूबर (बुधवार) - अहोई अष्टमी

नवम्बर माह :-
3 नवंबर (शनिवार) - रमा एकादशी
5 नवंबर (सोमवार) - मासिक शिवरात्रि, धनतेरस, दिवाली पूजा की तिथियाँ, प्रदोष व्रत (कृष्ण)
6 नवंबर (मंगलवार) - नरक चतुर्दशी
7 नवंबर (बुधवार) - दिवाली, कार्तिक अमावस्या
8 नवंबर (गुरुवार) - गोवर्धन पूजा
9 नवंबर (शुक्रवार) - भाई दूज
13 नवंबर (मंगलवार) - छठ पूजा
16 नवंबर (शुक्रवार) - वृश्चिक संक्रांति, गोपाष्टमी
17 नवंबर (शनिवार) - अक्षय नवमी
19 नवंबर (सोमवार) - देवुत्थान एकादशी
20 नवंबर (मंगलवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
23 नवंबर (शुक्रवार) - कार्तिक पूर्णिमा व्रत
26 नवंबर (सोमवार) - संकष्टी चतुर्थी
29 नवंबर (गुरुवार) - कालभैरव अष्टमी

दिसंबर माह :-
3 दिसंबर (सोमवार) - उत्पन्ना एकादशी
4 दिसंबर (मंगलवार) - प्रदोष व्रत (कृष्ण)
5 दिसंबर (बुधवार) - मासिक शिवरात्रि
7 दिसंबर (शुक्रवार) - मार्गशीर्ष अमावस्या
12 दिसंबर (बुधवार) - श्रीराघव विवाह पञ्चमी
16 दिसंबर (रविवार) - धनु संक्रांति
19 दिसंबर (बुधवार) - मोक्षदा एकादशी
20 दिसंबर (गुरुवार) - प्रदोष व्रत (शुक्ल)
22 दिसंबर (शनिवार) - मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत
25 दिसंबर (मंगलवार) - संकष्टी चतुर्थी

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॥ राधे राधे ॥ जय जय श्रीराधे ॥ राधे राधे ॥ जय जय श्रीराधे ॥
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बुधवार, 8 नवंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १९

॥जय श्री राम॥

भोजराज मीरा का ऐसा प्रेम भाव देख स्तब्ध रह गये ।उन्होंने स्वयं का भाव समेट कर शीघ्रता से मिथुला को मीरा को संभालने के लिए पुकारा ।

मीरा प्रभु का बींद स्वरूप स्मरण करते करते भाव में निमग्न हो गई ।मिथुला ने जल पात्र मुख से लगाया तो वह सचेत हुईं। फिर ?आप बता रही थी कि प्रभु अक्षय तृतीया को बींद बनकर पधारे थे – भोजराज ने पूछा ।

मीरा ने किचिंत लजाते हुये कहा , जी हुकम ! मेरा और प्रभु का हस्त -मिलाप हुआ। उनके पीताम्बर से मेरी साड़ी की गाँठ बाँधी गयी । भाँवरो में , मैं उनके अरूण मृदुल चारू चरणों पर दृष्टि लगाये उनका अनुसरण कर रही थी । हमें महलों में पहुँचाया गया । यह हीरकहार। उसने एक हाथ से अपने गले में पड़े हीरे के हार को दिखाया। यह प्रभु ने मुझे पहनाया और मेरा घूँघट ऊपर उठा दिया ।

यह. यह वह नहीं है , जो मैंने नज़र किया था ? भोजराज ने सावधान होकर पुछा ।
वह तो गिरधर गोपाल के गले में है । मीरा ने कहा और हार में लटकता चित्र दिखाया -यह , इसमें प्रभु का चित्र है ।

मैं देख सकता हूँ इसे ? भोजराज चकित हो उठे ।

अवश्य । मीरा ने हार खोल कर भोजराज की हथेली पर रख दिया ।भोजराज ने श्रद्धा से देखा ,सिर से लगाया और वापिस लौटा दिया । आगे क्या हुआ ? उन्होंने जिज्ञासा की ।

मैं प्रभु के चरण स्पर्श को जैसे ही झुकी- उन्होंने मुझे बाँहों में भर उठा लिया । मीरा की आँखें आनन्द से मुंद गई ।वाणी अवरूद्ध होने लगी ।हा म्हाँरा सर.. सर्वस्व ..म्हूँथारी चेरी (दासी) ।

मीरा की अपार्थिव दृष्टि से आनन्द अश्रु बन ढलकने लगा ।ऐसा लगा जैसे आँसू -मोती की लड़िया बनकर टूट कर झड़ रहे हो ।उसे स्वयं की सुध न रही । भोजराज को मन हुआ उठकर जल पिला दें पर अपनी विवशता स्मरण कर बैठे रहे । कुछ क्षणों के पश्चात जब मीरा ने निमीलित दृष्टि खोली तो किंचित संकुचित होते हुए बोली ,मैं तो बाँवरी हूँ  कोई अशोभनीय बात तो नहीं कह दी । नहीं नहीं ! आप ठाकुर जी से विवाह की बात बता रही थी कि कक्ष में पधारने पर आपने प्रणाम किया और. ।

जी । मीरा जैसे खोये से स्वर में बोली - वह मेरे समीप थे, वह सुगन्धित श्वास , वह देह गन्ध , इतना आनन्द मैं कैसे संभाल पाती ! प्रातःकाल सबने देखा -वह गँठजोड़ा , हथलेवे का चिन्ह , गहने , वस्त्र , चूड़ा ।चित्तौड़ से आया चूड़ा तो मैंने पहना ही नहीं  गहने , वस्त्र सब ज्यों के त्यों रखे है ।
क्या मैं वहाँ से आया पड़ला देख सकता हूँ ?भोजराज बोले ।
अभी मंगवाती हूँ । मीरा ने मंगला और मिथुला को पुकारा । मिथुला ,थूँ जो द्वारिका शूँ आयो पड़ला कणी पेटी में है ?और चित्तौड़ शूँ पड़ला -वा ऊँचा ला दोनों तो मंगला ।

दोंनों पेटियाँ आयी तो दासियों ने दोनों की सामग्री खोलकर अलग अलग रख दी । आश्चर्य से भोजराज ने देखा ।सब कुछ एक सा था गिनती , रंग पर फिर भी चित्तौड़ के महाराणा का सारा वैभव द्वारिका से आये पड़ले के समक्ष तुच्छ था ।श्रद्धा पूर्वक भोजराज ने सबको छुआ, प्रणाम किया ।सब यथा स्थान पर रख दासियाँ चली गई तो भोजराज ने उठकर मीरा के चरणों में माथा धर दिया ।

अरे यह , यह क्या कर रहे है आप ? मीरा ने चौंककर कहा और पाँव पीछे हटा लिए ।
अब आप ही मेरी गुरु है ,मुझ मतिहीन को पथ सुझाकर ठौर- ठिकाने पहुँचा देने की कृपा करें । गदगद कण्ठ से वह ठीक से बोल नहीं पा रहे थे , उनके नेत्रों से अश्रुओं की बूँदे मीरा के अमल धवल चरणों का अभिषेक कर रहे थे ।

भोजराज सजल नेत्रों से अतिशय भावुक एवं विनम्र हो मीरा के चरणों में ही बैठे उनसे मार्ग दर्शन की प्रार्थना करने लगे । मीरा का हाथ सहज ही भोजराज के माथे पर चला गया - आप उठकर विराजिये ।प्रभु की अपार सामर्थ्य है ।शरणागत की लाज उन्हें ही है ।कातरता भला आपको शोभा देती है ? कृपा करके उठिये । भोजराज ने अपने को सँभाला ।वे वापिस गद्दी पर जा विराजे और साफे से अपने आँसू पौंछने लगे ।मीरा ने उठकर उन्हें जल पिलाया ।

आप मुझे कोई सरल उपाय बतायें ।पूजा -पाठ , नाचना-गाना ,मँजीरे याँ तानपुरा बजाना मेरे बस का नहीं है । भोजराज ने कहा । यह सब आपके लिए आवश्यक भी नहीं है । मीरा हँस पड़ी । बस आप जो भी करें , प्रभु के लिए करें और उनके हुकम से करें, जैसे सेवक स्वामी की आज्ञा से अथवा उनका रूख देखकर कार्य करता है ।जो भी देखें , उसमें प्रभु के हाथ की कारीगरी देखें ।कुछ समय के अभ्यास से सारा ही कार्य उनकी पूजा हो जायेगी ।

युद्ध भूमि में शत्रु संहार , न्यायासन पर बैठकर अपराधियों को दण्ड देना भी क्या उन्हीं के लिए है ?

हाँ हुकम ! मीरा ने गम्भीरता से कहा- नाटक के पात्र मरने और मारने का अभिनय नहीं करते क्या ? उन्हीं पात्रों की भातिं आप भी समझ लीजिए कि न मैं मारता हूँ न वे मरते है , केवल मैं प्रभु की आज्ञा से उन्हें मुक्ति दिला रहा हूँ ।यह जगत तो प्रभु का रंगमंच है।दृश्य भी वही है और द्रष्टा भी वही है ।अपने को कर्ता मानकर व्यर्थ बोझ नहीं उठायें ।कर्त्ता बनने पर तो कर्मफल भी भुगतना पड़ता है, तब क्यों न सेवक की तरह जो स्वामी चाहे वही किया जाये ।मजदूरी तो कर्ता बनने पर भी उतनी ही मिलती है , जितनी मजदूर बनने पर , पर ऐसे में स्वामी की प्रसन्नता भी प्राप्त होती है ।हाँ -एक बाद अवश्य ध्यान रखने की है कि जो पात्रता आपको प्रदान की गयी है , उसके अनुसार आपके अभिनय में कमी न आने पाये ।

मीरा ने थोड़ा रूककर फिर कहा , क्या उचित है और क्या अनुचित ,यह बात किसी और से सुनने की आवश्यकता नहीं होती।भीतर बैठा अन्तर्यामी ही हमें उचित अनुचित का बोध करा देता है ।उसकी बात अनसुनी करने से धीरेधीरे वह भीतर की ध्वनि धीमी पड़ती जाती है, और नित्य सुनने से और उसपर ध्यान देकर उसके अनुसार चलने पर अन्त:करण की बात स्पष्ट होती जाती है ।फिर तो कोई अड़चन नहीं रहती ।कर्तव्य -पालन ही राजा के लिए सबसे बड़ी पूजा और तपस्या है ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

शनिवार, 4 नवंबर 2017

मूर्खो के लक्षण

नमो राघवाय,
आज मैं आपके सामने मूर्खों ही के लक्षणों का धर्म शास्त्र के आधार पर वर्णन करुँगा। क्या आप में भी निम्नाँकित सूक्तियों के लक्षण मिलते हैं? यदि मिलते हों, तो आप अपना भी परिमार्जन करिए और मूर्खता के कलंक से बचकर निर्मल होने का प्रयत्न करिए।

१. जिसके उदर से जन्म लिया, ऐसी माता और पिता के साथ विरोध करे, सर्व परिवार को छोड़ स्त्री में रमा रहे, अपने गुप्त मत का प्रकाश स्त्री से करे-जो कि उसके दायरे से बाहर की बात है, वह मूर्ख है।
२. बलवान से बैर करे, अपने शरीर पर गर्व करे, बिना बल के सत्ता दिखावे, आत्म स्तुति करे, दरिद्र स्थिति में रहकर भी बड़ी बड़ी डींगें हाँके, चिकित्सक एवं सत्ता धारी से अकारण विरोध करे, वह मूर्ख है।
३. जेबों में हाथ डाले अकड़ कर बात करे वह मूर्ख है।
४. बिना कारण हंसे, अत्यन्त अविवेकी विचार शून्य और बहुतों का शत्रु हो, उसे मूर्ख जानो।
५. नीच से मित्रता करे, रात-दिन पर छिन्द्रान्वेषण को तत्पर रहे, वह मूर्ख है।
६. जहाँ बहुत लोग बैठे हैं, उनके मध्य में जाकर सोना और विदेश में हर व्यक्ति पर बिना जाने विश्वास कर लेना मूर्खता है।
७. व्यसनों के वश होकर अपनी महत्ता को खो बैठे वह मूर्ख है।
८. पर-आशा से परिश्रम करना छोड़कर जो अकेले पन में आनन्द माने वह मूर्ख है।
९. मूर्ख घर में बड़े विवेकी बनते हैं, बहुत बोल कर अपने परिवार के भोले जीवों पर अपनी धाक जमाये रखते हैं, एवं स्त्रियों के सन्मुख बहादुरी दिखाते और मौका पड़ने पर पीठ दिखाकर भागते है। स्त्रियों में वक्ता बनते हैं, किन्तु सभा में शर्माते हैं वे मूर्ख हैं।
१०. वृद्धों के सन्मुख ज्ञानीपना प्रकट करे, सात्विक और सरल हृदय के जीवों से छल करे, अपने से श्रेष्ठ के साथ स्नेह करने जाये और उन का उपदेश नहीं माने, वह मूर्ख है।
११. विषयी और निर्लज्ज होकर मर्यादा से बाहर कार्य करता फिरे, रोगी होकर पथ्य का पालन न करे, उसे मूर्ख जानो।
१२. विदेश में बिना परिचय किसी का साथ करे और जाने बूझे बिना किसी बड़े नगर (शहर) में जावे, यह लक्षण मूर्खों में ही होते हैं।
१३. जहाँ अपमान होता हो वहाँ बारम्बार जाए, बिना पूछे उपदेश देने लगे, वह मूर्ख है।
१४. बिना विचारे तनिक अपराध पर भी दंड दे, मामूली-2 बातें में भी कृपा दिखावे, वह मूर्ख है।
१५. वास्तविकता को न मानना, शक्ति बिना बड़ी-बड़ी बातें करना, मुख से अपशब्द बोलना मूर्खों ही का काम है।
१६. घर में अपनी बड़ी बहादुरी प्रकट करे और बाहर दीन बनकर फिरे उसे मूर्ख जानो।
१७. नीच की मित्रता, पर-स्त्री के साथ एकान्त और मार्ग चलते खाना मूर्ख के लक्षण है।
१८. किसी के किये उपकार को अपकार माने, अपना थोड़ा किया बहुत बतावें, ऐसे कृतघ्न को मूर्ख जानना चाहिए।
१९. तामसी, आलसी, मन से कुटिल और अधीर मनुष्य मूर्ख होता है।
२०. विद्या, वैभव, धन, पुरुषार्थ, बल और मान बिना मिथ्या अभिमान करने वाला मूर्ख होता है।
२१. मलीन रहना दाँत, आँख, हाथ, वस्त्र और शरीर सर्व काल मैले रक्खे, यह कार्य मूर्खों ही के हैं।
२२. क्रोध से, अभिमान से और कुबुद्धि से अपना आप ही घात करे, ऐसा अव्यवस्थित चित्त वाला मूर्ख है।
२३. अपने सुहृद के साथ बुरा व्यवहार करे, सुख और शान्ति का एक शब्द भी न बोले और नीच जनों की स्तुति करे, वह मूर्ख है।
२४. अपने आप को सर्व प्रकार से पूर्ण माने, शरणागत को धिक्कारे, लक्ष्मी और आयु का भरोसा करे, वह मूर्ख है।
२५. सांसारिक विषय वासना को ही मुख्य मान कर ईश्वर को भूल जावे, कर्त्तव्य का ज्ञान न हो, वह मूर्ख है।
२६. बुरे का संग करे, आँख बंदकर मार्ग चले, पितृ, गुरु देव, माता-पिता, गुरु भाई, स्वामी आदि बड़ों का विरोध करे, वह मूर्ख है।
२७. दूसरे को दुख में देख हंसे और सुखी देख कर कुढ़े, गई वस्तु का शोक करे, अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा न कर सके, सदा हँसी ठट्ठा करे, हँसते 2 लड़ने लग जाय, उसे मूर्ख जानो।

आचार्य चाणक्य ने चाणक्य नीति में मूर्खो के प्रमुख भेद बताये है। इनके अनुसार –
मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढ़वादश्च परवाक्येष्वनादरः॥
अर्थात :-
मूर्खों के पाँच लक्षण होते हैं, यथा - 
१.गर्व, 
२. अपशब्द, 
३.क्रोध,
४. हठ और
५. दूसरों की बातों का अनादर।

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

मांसाहार - अनुचित एवं महापाप



हिंसामूलमध्यमास्पदमल ध्यानस्थ 
रौद्रस्य यदविभत्स, रूधिराविल कृमिगृह 
दुर्गन्धिपूयदिकम्। 
शुक्रास्रक्रप्रभव 
नितांतमलिनम् सदभि सदा निंदितम्, 
को भुड्क्ते नरकाय राक्षससमो 
मासं तदात्मद्रुहम्॥
अर्थात्:

माँस हिंसा का मूल, हिंसा करने पर ही निष्पन्न होता है। अपवित्र है। और रौद्र (क्रूरता) का कारण है। देखने में विभत्स, रक्तसना होता है। कृमियों व सुक्षम जंतुओं का घर है। दुर्गंधयुक्त मवाद वाला, शुक्र-शोणित से उत्पन्न, अत्यंत मलिन व सत्पुरुषों द्वारा निंदित है। भला कौन इसका भक्षण कर, राक्षस सम बनकर नरक में जाना चाहेगा?
• सामिष (माँस पदार्थ) में एक जीव नहीं, अधिसंख्य जीवों की हिंसा 

माँस में केवल एक जीव का ही प्रश्न नहीं है। जब जीव की मांस के लिए हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही मक्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का क्षण मात्र में मक्खिओं को कैसे आभास हो जाता है, उसी क्षण
से वह मांस मक्खिओं के लार्वा का भोजन बनता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही असंख्य सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार होता है, वे बुचडखाने व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, वे रोगाणु भी तो जीव ही होते है। यानि एक ताज़ा मांस के टुकडे पर ही लाखों मक्खी के अंडे,लार्वा। लाखों सुक्ष्म जीव और लाखों रोगाणु होते है। इतना ही नहीं पकने के बाद भी मांस पूर्ण सुरक्षित नहीं हो जाता, उसमें जीवोत्पती निरंतर जारी रहती है। इसलिये, एक जीव का मांस होते हुए भी, संख्या के आधार पर माँस असंख्य-अनंत जीवहिंसा का कारण बनता है।

यह भ्रांत धारणा है कि माँसाहार उद्देश्य से होने वाले वध में मात्र एक जीव के वध का पाप लगता है। जबकि सच्चाई यह है कि माँसाहार में, उस एक जीव सहित, माँस में उत्पन्न व उस पर आश्रित असंख्य जीवों के वध का दुष्कर्म दोष भी लगता है। निश्चित ही माँस में महाहिंसा है।

मीरा चरित्र - भाग १८

॥जय श्री राम॥

बड़ी धूमधाम से बारात चित्तौड़ पहुँची । राजपथ की शोभा देखते ही बनती थी।वाद्यों की मंगल ध्वनि में मीरा ने महल में प्रवेश किया ।सब रीति रिवाज़ सुन्दर ढंग से सहर्ष सम्पन्न हुये । देर सन्धया गये मीरा को उसके महल में पहुँचाया गया । मिथुला ,चम्पा की सहायता से उसने गिरधरलाल को एक कक्ष में पधराया ।भोग ,आरती करके शयन से पूर्व वह ठाकुर के लिए गाने लगी.

होता जाजो राज म्हाँरे महलाँ,होता जाजो राज।
मैं औगुणी मेरा साहिब सौ गुणा,संत सँवारे काज।
मीरा के प्रभु मन्दिर पधारो,करके केसरिया साज।

मीरा के मधुर कण्ठ की मिठास सम्पूर्ण कक्ष में घुल गई ।भोजराज ने शयन कक्ष में साफा उतारकर रखा ही था कि मधुर रागिनी ने कानों को स्पर्श किया ।वे अभिमन्त्रित नाग से उस ओर चल दिये ।वहाँ पहुँचकर उनकी आँखें मीरा के मुख-कंज की भ्रमर हो अटकी ।भजन पूरा हुआ तो उन्हें चेत आया ।प्रभु को दूर से प्रणाम कर वह लौट आये ।

अगले दिन मीरा की मुँह दिखाई और कई रस्में हुईं ।पर मीरा सुबह से ही अपने ठाकुर जी की रागसेवा में लग जाती ।अवश्य ही अब इसमें भोजराज की परिचर्या एवं समय पर सासुओं की चरण -वन्दना भी समाहित हो गई ।नई दुल्हन के गाने की चर्चा महलों से निकल कर महाराणा के पास पहुँची ।

उनकी छोटी सास कर्मावती ने महाराणा से कहा, यों तो बीणनी से गाने को कहे तो कहती है मुझे नहीं आता और उस पीतल की मूर्ति के समक्ष बाबाओं की तरह गाती है ।

महाराणा ने कहा , वह हमें नहीं तीनों लोकों के स्वामी को रिझाने के लिए नाचती गाती है ।मैंने सुना है कि जब वह गाती है, तब आँखों से सहज ही आँसू बहने लगते है ।जी चाहता है , ऐसी प्रेममूर्ति के दर्शन मैं भी कर पाता ।

हम बहुत भाग्यशाली है जो हमें ऐसी बहू प्राप्त हुईं ।पर अगर ऐसी भक्ति ही करनी थी तो फिर विवाह क्यों किया ? बहू भक्ति करेगी तो महाराज कुमार का क्या ?

युवराज चाहें तो एक क्या दस विवाह कर सकते है ।उन्हें क्या पत्नियों की कमी है ? पर इस सुख में क्या धरा है ? यदि कुमार में थोड़ी सी भी बुद्धि होगी तो वह बीनणी से शिक्षा ले अपना जीवन सुधार लेंगे ।

मीरा को चित्तौड़ में आये कुछ मास बीत गये ।गिरधर की रागसेवा नियमित चल रही है।मीरा अपने कक्ष में बैठे गिरधरलाल की पोशाक पर मोती टाँक रही थी ।कुछ ही दूरी पर मसनद के सहारे भोजराज बैठे थे ।

सुना है आपने योग की शिक्षा ली है ।ज्ञान और भक्ति दोनों ही आपके लिए सहज है।यदि थोड़ी -बहुत शिक्षा सेवक भी प्राप्त हो तो यह जीवन सफल हो जाये । भोजराज ने मीरा से कहा ।

ऐसा सुनकर मुस्कुरा कर भोजराज की तरफ देखती हुई मीरा बोली , यह क्या फरमाते है आप ? चाकर तो मैं हूँ । प्रभु ने कृपा की कि आप मिले।कोई दूसरा होता तो अब तक मीरा की चिता की राख भी नहीं रहती ।चाकर आप और मैं , दोनों ही गिरधरलाल के है ।

भक्ति और योग में से कौन श्रेष्ठ है ?भोजराज ने पूछा ।

देखिये, दोनों ही अध्यात्म के स्वतन्त्र मार्ग है ।पर मुझे योग में ध्यान लगा कर परमानन्द प्राप्त करने से अधिक रूचिकर अपने प्राण-सखा की सेवा लगी ।
तो क्या भक्ति में ,सेवा में योग से अधिक आनन्द है?
यह तो अपनी रूचि की बात है ,अन्यथा सभी भक्त ही होते संसार में ।योगी ढूँढे भी न मिलते कहीं ।
मुझे एक बात अर्ज करनी थी आपसे  मीरा ने कहा ।
एक क्यों , दस कहिये । भोजराज बोले ।
आप जगत-व्यवहार और वंश चलाने के लिए दूसरा विवाह कर लीजिए ।
बात तो सच है आपकी ,किन्तु सभी लोग सब काम नहीं कर सकते ।उस दिन श्याम कुन्ज में ही मेरी इच्छा आपके चरणों की चेरी बन गई थी ।आप छोड़िए इन बातों में क्या रखा है ? यदि इनमें थोड़ा भी दम होता तो..बात अधूरी छोड़ कर वे मीरा की ओर देख मुस्कुराये।

रूप और यौवन का यह कल्पवृक्ष चित्तौड़ के राजकुवंर को छोड़कर इस मूर्ति पर न्यौछावर नहीं होता और भोज शक्ति और इच्छा का दमन कर इन चरणों का चाकर बनने में अपना गौरव नहीं मानता ।जाने दीजिये  आप तो मेरे कल्याण का सोचिए ।लोग कहते है  ईश्वर निर्गुण निराकार है ।इन स्थूल आँखों से नहीं देखा जा सकता ,मात्र अनुभव किया जा सकता है ।सच क्या है, समझ नहीं पाया ।

वह निर्गुण निराकार भी है और सगुण साकार भी । मीरा ने गम्भीर स्वर में कहा- निर्गुण रूप में वह आकाश , प्रकाश की भांति है -जो चेतन रूप से सृष्टि में व्याप्त है ।वह सदा एकरस है ।उसे अनुभव तो कर सकते है , पर देख नहीं सकते।और ईश्वर सगुण साकार भी है ।यह मात्र प्रेम से बस में होता है, रूष्ट और तुष्ट भी होता है ।ह्रदय की पुकार भी सुनता है और दर्शन भी देता है । मीरा को एकाएक कहते कहते रोमांच हुआ ।

यह देख भोजराज थोड़े चकित हुए ।उन्होने कहा , भगवान के बहुत नाम -रूप सुने जाते है ।नाम -रूपों के इस विवरण में मनुष्य भटक नहीं जाता ?

भटकने वालों को बहानों की कमी नहीं रहती ।भटकाव से बचना हो तो सीधा उपाय है कि जो नाम रूप स्वयं को अच्छा लगे , उसे पकड़ ले और छोड़े नहीं ।दूसरे नाम-रूप को भी सम्मान दें ।क्योंकि सभी ग्रंथ , सभी साम्प्रदाय उस एक ईश्वर तक ही
पहुँचने का पथ सुझाते है ।मन में अगर दृढ़ विश्वास हो तो उपासना फल देती है।

अत्यन्त विनम्रता से भोजराज मीरा से भगवान के सगुण साकार स्वरूप की प्राप्ति के लिए जिज्ञासा कर रहे है । वह बोले , तो आप कह रही है कि भगवान उपासना से प्राप्त होते है ।वह कैसे ?मैं समझा नहीं ?

उपासना मन की शुद्धि का साधन है ।संसार में जितने भी नियम है ; संयम , धर्म , व्रत , दान -सब के सब जन्म जन्मान्तरों से मन पर जमें हुये मैले संस्कारों को धोने के उपाय मात्र है ।एकबार वे धुल जायें तो फिर भगवान तो सामने वैसे ही है जैसे दर्पण के स्वच्छ होते ही अपना मुख उसमें दिखने लगता है । मीरा ने स्नेह से कहा, देखिए , भगवान को कहीं से आना थोड़े ही है जो उन्हें विलम्ब हो । भगवान न उपासना के वश में हो और न दान धर्म के ।वे तो कृपा -साध्य है, प्रेम -साध्य है ।बस उन्हें अपना समझ कर उनके सम्मुख ह्रदय खोल दें ।अगर हम उनसे कोई लुकाव-छिपाव न करें तो भगवान से अधिक निकट कोई भी हमारे पास नहीं -और यदि यह नहीं है तो उनकी दूरी की कोई सीमा भी नहीं ।

पर मनुष्य के पास अपनी इन्द्रियों को छोड़ अनुभव का कोई अन्य उपाय तो है नहीं ,फिर जिसे देखा नहीं , जाना नहीं ,व्यवहार में बरता नहीं , उससे प्रेम कैसे सम्भव है ?

हमारे पास एक इन्द्रिय ऐसी है , जिसके द्वारा भगवान ह्रदय में साकार होते है ।और वह इन्द्रिय है कान ।बारम्बार उनके रू प-गुणों का वर्णन श्रवण करने से विश्वास होता है और वे हिय में प्रकाशित हो उठते है ।विग्रह की पूजा -भोग-राग करके हम अपनी साधना में उत्साह बढ़ा सकते है ।

पर बिना देखे प्रतीक (विग्रह) कैसे बनेगा ? क्या आपने कभी साक्षात दर्शन किए ?

प्रश्न सुनकर मीरा की आँखें भर आई और गला रूँध गया ।घड़ी भर में अपने को संभाल कर बोली - अब आपसे क्या छिपाऊँ ?यद्यपि यह बातें कहने -सुनने की नहीं होती ।मन से तो वह रूप पलक झपकने जितने समय भी ओझल नहीं होता , किन्तु अक्षय तृतीया के प्रभात से पूर्व मुझे स्वप्न आया कि प्रभु मेरे बींद( दूल्हा ) बनकर पधारे है, और देवता , द्वारिका वासी बारात में आये ।दोनों ओर चंवर डुलाये जा रहे थे ।वे सुसज्जित श्वेत अश्व पर जिसके केवल कान काले थे, पर विराजमान थे ।यद्यपि मैंने आपके राजकरण अश्व के समान शुभलक्षण और सुन्दर अश्व नहीं देखा तथा आपके समान कोई सुन्दर नर नहीं दिखाई दिया पर.पर. उस रूप के सम्मुख कुछ भी नहीं ।

मीरा बोलते बोलते रूक गई ।उनकी आँखें कृष्ण रूप माधुरी के स्मरण में स्थिर हो गई और देह जैसे कँपकँपा उठी ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १७

॥जय श्री राम॥

तूने तो मुझे कह दिया जग जंजाल है पर बेटा तुझे पता है कि तेरी तनिक सी -ना कितना अनर्थ कर देंगी मेड़ता में ? तलवारें म्यानों से बाहर निकल आयेंगी । माँ ने चिन्तित हो कहा ।

आप चिन्ता न करे , माँ ! जब भी कोई रीति करनी हो मुझे बुला लीजिएगा , मैं आ जाऊँगी ।
वाह , मेरी लाड़ली ! तूने तो मेरा सब दुख ही हर लिया । कहती हुई प्रसन्न मन से माँ झाली जी चली गई ।

गोधूलि के समय बारात आई ।द्वार -पूजन तोरण-वन्दन हुआ ।चित्तौड़ से पधारे विशेष अतिथि और मेड़ताधीश बाहों में भरकर एक दूसरे से मिले और जनवासे में विराजे, नज़र न्यौछावर हुई ।

जब चित्तौड़ से आया मीरा के लिए पड़ला (वरी ) रनिवास पहुँचा तो सब चकित देखते से रह गये ।वस्त्रों के रंग , आभूषणों की गढ़ाई और गिनती ठीक उतनी की उतनी , वैसी की वैसी जैसा सबने मीरा के कक्ष में सुबह देखा था , -बस मूल्य और काम में ही दोनों में अन्तर दिखाई दे रहा था ।जब मीरा को वस्त्राभूषण धारण कराने का समय आया तो उसने कहा , सब वैसा -का वैसा ही तो है भाभा हुकम ! जो पहने हूँ , वही रहने दीजिये न ।

चित्तौड़ से आयी हुई पड़ले की सामग्री मीरा के दहेज में मिला दी गई ।मण्डप में अपने और भोजराज के बीच मीरा ने ठाकुर जी को ओढ़नी से निकाल विराजमान कर लिया।ठौर कम पड़ी तो भोजराज थोड़ा परे सरक गये ।भाँवर के समय बायें हाथ से गिरधरलाल को साथ ही मीरा ने पकड़े रखा ।

स्त्रियाँ अपनी ही धुन में गीत गाती ,आनन्द मनाते हुये बारम्बार जोड़ी की सराहना करने लगी - जैसी सुशील , सुन्दर अपनी बेटी है , वैसा ही बल , बुद्धि और रूप- गुण की सीमा बींद है । दूसरी ने कहा , ऐसा जमाई मिलना सौभाग्य की बात है ।बड़े घर का बेटा होते हुये भी शील और सन्तोष तो देखो ।

हीरे- मोतियों से जड़ा मौर, जरी का केसरिया साफा, बड़े -बड़े


चित्तौड़ से आई प्रौढ़ दासियाँ वर वधू पर राई नौन उतारते हुये अपने राजकुवंर के गुणों का बखान करने लगी   बल, बुद्धि तो इनका आभूषण ही है ।पर जब न्याय के आसन पर बैठते है तो बड़े बड़े लोग आश्चर्य चकित रह जाते है ..और जब.. । भोजराज ने बाँया हाथ उठा करके पीछे खड़ी जीजी को बोलने से रोक दिया ।

विवाह सम्पन्न हुआ तो सबको प्रणाम के पश्चात दोनों को एक कक्ष में पधराया गया।द्वार के पास निश्चिंत मन से खड़ी मीरा को देखकर भोजराज धीमे पदों से उनके सम्मुख आ खड़े हुये  मुझे अपना वचन याद है ।आप चिन्ता न करें ।जगत और जीवन में मुझे सदा आप अपनी ढाल पायेंगी । भोजराज ने गम्भीर मीठे स्वर में मीरा से कहा , आप चिन्ता न करें ।जगत और जीवन में मुझे आप सदा अपनी ढाल पायेंगी । थोड़ा हँसकर वे पुनः बोले , यह मुँह दिखाई का नेग , इसे कहाँ रखूँ ?  उन्होंने खीसे में से हार निकालकर हाथ में लेते हुये कहा ।

मीरा ने हाथ से झरोखे की ओर संकेत किया ।और सोचने लगी एकलिंग (भगवान शिव जो चित्तौड़गढ़ में इष्टदेव है । )के सेवक पर अविश्वास का कोई कारण तो नहीं दिखाई देता पर मेरे रक्षक कहीं चले तो नहीं गये है । मीरा ने आँचल के नीचे से गोपाल को निकालकर उसी झरोखे में विराजमान कर दिया ।

हुकम हो तो चाकर भी इनकी चरण वन्दना कर ले !  भोजराज ने कहा । मीरा ने मुस्कुरा कर स्वीकृति में माथा हिलाया ।

एकलिंग नाथ ने बड़ी कृपा की ।चित्तौड़ के महल भी आपकी चरणरज से पवित्र होंगे ।शैव ( शिव भक्त ) सिसौदिया भी वैष्णवों के संग से पवित्रता का पाठ सीखेंगे । उन्होंने वह हार गिरधर गोपाल को धारण करा दिया ।

आपने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया प्रभु ! मैं कृतार्थ हुआ ।इस अग्नि परीक्षा में साथ देना , मेरे वचन और अपने धन की रक्षा करना मेरे स्वामी !  फिर मीरा की ओर मुस्कुराते हुये बोले , यह घूँघट ? मीरा ने मुस्कुरा कर घूँघट उठा दिया ।वह अतुल रूपराशि देखकर भोजराज चकित रह गये , पर उन्होंने पलकें झुका ली ।

प्रातः कुंवर कलेवा पर पधारे तो स्त्रियों ने हँसी मज़ाक में प्रश्नों की बौछार कर दी ।भोजराज ने धैर्य से सब प्रश्नों का उत्तर दिया । रत्नसिंह (भोजराज के छोटे भाई ) ने भोजराज और मीरा के बीच गिरधर को बैठा देखा तो धीरे से पूछा , यह क्या टोटका है ?

टोटका नहीं , यह तुम्हारी भाभीसा के भगवान है । भोजराज ने हँस कर कहा । भगवान तो मन्दिर में रहते है ।यहाँ क्यों ? बींद (दूल्हा ) है तो बींदनी के पास ही तो बैठेंगे न! भोजराज मुस्कुराये । रत्नसिंह हँस पड़े , पर भाई बींद आप है कि ये ?

बींद तो यही है ।मैं तो टोटका हूँ ।धीरेधीरे तुम समझ जाओगे ।भोजराज ने धैर्य से कहा । क्यों भाभीसा ! दादोसा क्या फरमा रहे है ? रत्नसिंह ने मीरा से पूछा तो उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया । विदाई का दिन भी आ गया ।माँ ,काकी ने नारी धर्म की शिक्षा दी ।

पिता बेटी के गले लग रो पड़े ।वीरमदेव जी मीरा के सिर पर हाथ रख बोले , तुम स्वयं समझदार हो, पितृ और पति दोनों कुलों का सम्मान बढ़े, बेटा वैसा व्यवहार करना ।

फिर भोजराज की तरफ़ हाथ जोड़ वीरमदेव जी बोले , हमारी बेटी में कोई अवगुण नहीं है , पर भक्ति के आवेश में इसे कुछ नहीं सूझता ।इसकी भलाई बुराई , इसकी लाज आपकी लाज है ।आप सब संभाल लीजिएगा । भोजराज ने उन्हें आँखों से ही आश्वासन दिया । उसी समय रोती हुई माँ मीरा के पास आई और बोली , बेटी तेरे दाता हुकम ( वीरमदेव जी )ने दहेज में कोई कसर नहीं रखी पर लाडो , कुछ और चाहिए तो बोल मीरा ने कहा

दै री अब म्हाँको गिरधरलाल ।
प्यारे चरण की आन करति हाँ और न दे मणि लाल ॥
नातो सगो परिवारो सारो म्हाँने लागे काल।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर छवि लखि भई निहाल ॥

माँ ने मीरा से जब पूछा कि बेटी मायके से कुछ और चाहिए तो बता तो मीरा ने कहा, बस माँ मेरे ठाकुर जी दे दो-मुझे और किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं है ।

ठाकुर जी को भले ही ले जा बेटा , पर उनके पीछे पगली होकर अपना कर्तव्य न भूल जाना ।देख, इतने गुणवान और भद्र पति मिले है ।सदा उनकी आज्ञा में रहकर ससुराल में सबकी सेवा करना  माँ ने कहा । बहनों ने मिल कर मीरा को पालकी में बिठाया ।मंगला ने सिंहासन सहित गिरधरलाल को उसके हाथ में दे दिया ।दहेज की बेशुमार सामग्री के साथ ठाकुर जी की भी  पोशाकें और श्रंगार सब सेवा का ताम झाम भी साथ चला ।वस्त्राभूषण से लदी एक सौ एक दासियाँ साथ गई ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १६

॥जय श्री राम॥

संत को प्रणाम करने जैसे ही मीरा आगे बढ़ी, उसके नूपुरों की झंकार से वे सचेत हुये ।वर रूप में सजे गिरधर गोपाल के दर्शन कर उन्हें लगा मानों वह वृन्दावन की किसी निभृत निकुन्ज में आ खड़े हुये है ।उन्हें देखकर जैसे एकाएक श्याम सुन्दर ने मूर्ति का रूप धारण कर लिया और कोई ब्रजवनिता अचकचाकर वैसे ही खड़ी रह गई हो ।उनकी आँखों में आँसू भर आये ।
श्याम कुन्ज का वैभव और उस दिव्यांगना प्रेम पुजारिन को देख कर उन्होंने ठाकुर जी से कहा इस रमते साधुके पास सूखे टिकड़ और प्रेमहीन ह्रदयकी सेवा ही तो मिलती थी तुम्हें ! अब यहां आपका सुख देखकर जी सुखी हुआ ।किन्तु लालजी ! इस प्रेम वैभव में इस दास को भुला मत देना ।

अपने गिरधर के, ह्रदय नेत्र भर दर्शन कर लेने के पश्चात बाबा वस्त्र -खंड से आँसू पौंछते हुये बोले ,बेटी ! तुम्हारी प्रेम सेवा देख मन गदगद हुआ ।मैं तो प्रभु के आदेश से द्वारिका जा रहा हूँ ।यदि कभी द्वारिका आओगी तो भेंट होगी अन्यथा  ।लालजी के दर्शन की अभिलाषा थी, सो मन तृप्त हुआ ।

गिरधर गोपाल की बड़ी कृपा है महाराज ! आशीर्वाद दीजिये कि सदा ऐसी ही कृपा बनाए रखें ।ये मुझे मिले याँ न मिले , मैं इनसे मिली रहूँ ।आप बिराजे महाराज !  उसने केसर से प्रसाद लाने को कहा और स्वयं तानपुरा लेकर गाने लगी। मीरा ने सदा की तरह गीत के माध्यम से अपने भाव गिरधर के समक्ष प्रस्तुत किये.
साँवरा म्हाँरी प्रीत निभाज्यो जी ।
थें छो म्हाँरा गुण रा सागर,
औगण म्हाँरा मति जाज्यो जी ।
लोकन धीजै म्हाँरो मन न पतीजै
मुखड़ा रा सबद सुणाज्यो जी॥
म्हें तो दासी जनम जनम की,
म्हाँरे आँगण रमता आज्यो जी ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
बेड़ा पार लगाज्यो जी ॥ 

भजन की मधुरता और प्रेम भरे भावों से गिरधरदास जी तन्मय हो गये ।कुछ देर बाद आँखें खोलकर उन्होंने सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा ।उसके सिर पर हाथ रखकर अन्तस्थल से मौन आशीर्वाद दिया ।केसर द्वारा लाया गया प्रसाद ग्रहण किया और चलने को प्रस्तुत हुये । जाने से पहले एक बार फिर मन भर कर अपने ठाकुर जी की छवि को अपने नेत्रों में भर लिया । प्रणाम करके वे बाहर आये ।मीरा ने झुककर उनके चरणों में मस्तक रखा तो दो बूँद अश्रु संत के नेत्रों से निकल उसके मस्तक पर टपक पड़े ।

अहा, संतों के दर्शन और सत्संग से कितनी शांति -सुख मिलता है ?यह मैं इन लोगों को कैसे समझाऊँ? वे कहते है कि हम भी तो प्रवचन सुनते ही है पर हमें तो कथा में रोना-हँसना कुछ भी नहीं आता ।अरे, कभी खाली होकर बैठें , तब तो कुछ ह्रदय में भीतर जायें ।बड़ी कृपा की प्रभु ! जो आपने संत दर्शन कराये ।

और जो हो, सो हो, जीवन जिस भी दिशा में मुड़े , बस आप अपने प्रियजनों  निजजनों -संतों प्रेमियों का संग देना प्रभु ! उनके अनुभव ,उनके मुख से झरती तुम्हारे रूप, गुण , माधुरी की चर्चा प्राणों में फिर से जीने का उत्साह भर देती है,  प्राणों में नई तरंग की हिल्लोर उठा देती है ।जगत के ताप से तप्त मन प्राण तुम्हारी कथा से शीतल हो जाते है । मैं तो तुम्हारी हूँ ।तुम जैसा चाहो , वैसे ही रखो ।बस मैनें तो अपनी अभिलाषा आपके चरणों में अर्पण कर दी है ।

अक्षय तृतीया का प्रभात ।प्रातःकाल मीरा पलंग से सोकर उठी तो दासियाँ चकित रह गई।उन्होंने दौड़ कर माँ वीरकुवंरी जी और पिता रत्नसिंह जी को सूचना दी ।उन्होंने आकर देखा कि मीरा विवाह के श्रंगार से सजी है ।

बाहों में खाँचो समेत दाँत का चंदरबायी का चूड़ला है ।( विवाह के समय वर के यहाँ से वधू को पहनाने के लिए विशेष सोने के पानी से चित्रकारी किया गया चूड़ा जो कोहनी से ऊपर (खाँच) तक पहना जाता है ।गले में तमण्यों, ( ससुराल से आने वाला गले का मंगल आभूषण ), नाक में नथ, सिर पर रखड़ी (शिरोभूषण) , हाथों में रची मेंहदी , दाहिने हथेली में हस्तमिलाप का चिह्न और साड़ी के पल्लू में पीताम्बर का गठबंधन , चोटी में गूँथे फूल ,कक्ष में फैली दिव्य सुगन्ध -मानों मीरा पलंग से नहीं विवाह के मण्डप से उठ रही हो ।

यह क्या मीरा ! बारात तो आज आयेगी न ? रत्नसिंह राणावत जी ने हड़बड़ाकर पूछा ।

आप सबको मुझे ब्याहने की बहुत रीझ थी न , आज पिछली रात मेरा विवाह हो गया । मीरा ने सिर नीचा किए पाँव के अगूँठे से धरा पर रेख खींचते हुये कहा   प्रभु ने कृपा कर मझे अपना लिया भाभा हुकम ! मेरा हाथ थामकर उन्होंने मुझे भवसागर से पार कर दिया । कहते कहते उसकी आँखों से हर्ष के आँसू निकल पड़े ।

ये गहने तो अमूल्य है मीरा ! कहाँ से आये ? माँ ने घबरा कर पूछा ।
पड़ले ( वर पक्ष से आने वाली सामग्री याँ वरी ) में आये है भाबू ! बहुत सी पोशाकें , श्रंगार ,मेवा और सामग्री भी है ।वे सब इधर रखे है ।आप देखकर सँभाल ले भाबू ! मीरा ने लजाते हुये धीरेधीरे कहा ।

जरी के वस्त्रों पर हीरे -जवाहरत का जो काम किया गया था वह अंधेरे में भी चमचमा रहा था ।वीरमदेव जी ने भी सुना तो वह भाईयों के साथ आये ।उन्होंने सब कुछ देखा ,समझा और आश्चर्य चकित हुये । वीरमदेव जी मीरा के आलौकिक प्रेम और उसके अटूट विश्वास को समझ कर मन ही मन विचार करने लगे - क्यों विवाह करके हम अपनी सुकुमार बेटी को दुख दे रहे है ? किन्तु अब तो घड़ियाँ घट रही है ।कुछ भी बस में नहीं रहा अब तो । वे निश्वास छोड़ बाहर चले गये ।

मीरा श्याम कुन्ज में जाकर नित्य की ठाकुर सेवा में लग गई ।माँ ने लाड़ लड़ाते हुये समझाया - बेटी ! आज तो तेरा विवाह है ।चलकर सखियों ,काकियों भौजाईयों के बीच बैठ ! खाओ , खेलो , आज यह भजन -पूजन रहने दे


भाबू ! मैं अपने को अच्छे लगने वाला ही काम तो कर रही हूँ ।सबको एक से खेल नहीं अच्छे लगते ।आज यह पड़ला और मेरी हथेली का चिह्न देखकर भी आपको विश्वास नहीं हुआ तो सुनिए

माई म्हाँने सुपना में परण्या🔺 गोपाल ।
राती पीली चूनर औढ़ी मेंहदी हाथ रसाल॥
काँई कराँ और संग भावँर म्हाँने जग जंजाल ।
मीरा प्रभु गिरधर लाल सूँ करी सगाई हाल॥
परण्या -परिणय अर्थात विवाह ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

रविवार, 1 अक्तूबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १५

॥जय श्री राम॥

मीरा का विरह बढ़ता जा रहा था । इधर महल में, रनिवास में जो भी रीति रिवाज़ चल रहे थे उन पर भी उसका कोई वश नहीं था ।मीरा को एक घड़ी भी चैन नहीं था- ऐसे में न तो उसका ढंग से कुछ खाने को मन होता और न ही किसी ओर कार्य में रूचि ।

सारा दिन प्रतीक्षा में ही निकल जाता -शायद ठाकुर किसी संत को अपना संदेश दे भेजे याँ कोई संकेत कर मुझे कुछ आज्ञा देंऔर रात्रि किसी घायल की तरह रो रो कर निकलती ।ऐसे में जो भी गीत मुखरित होता वह विरह के भाव से सिक्त होता ।

घड़ी एक नहीं आवड़े तुम दरसण बिन मोय।
..
जो मैं ऐसी जाणती रे प्रीति कियाँ दुख होय।
नगर ढिंढोरा फेरती रे प्रीति न कीजो कोय॥
पंथ निहारूँ डगर बुहारूँ ऊभी󾭸 मारग जोय।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगा तुम मिलियाँ सुख होय
(󾭸ऊभी अर्थात किसी स्थान पर रूक कर प्रतीक्षा करनी ।)

कभी मीरा अन्तर्व्यथा से व्याकुल होकर अपने प्राणधन को पत्र लिखने बैठती । कौवे से कहती   तू ले जायेगा मेरी पाती, ठहर मैं लिखती हूँ । किन्तु एक अक्षर भी लिख नहीं पाती ।आँखों से आँसुओं की झड़ी काग़ज़ को भिगो देती

पतियां मैं कैसे लिखूँ लिखी ही न जाई॥
कलम धरत मेरो कर काँपत हिय न धीर धराई॥॥
मुख सो मोहिं बात न आवै नैन रहे झराई॥
कौन विध चरण गहूँ मैं सबहिं अंग थिराई॥
मीरा के प्रभु आन मिलें तो सब ही दुख बिसराई

मीरा दिन पर दिन दुबली होती जा रही थी ।देह का वर्ण फीका हो गया ,मानों हिमदाह से मुरझाई कुमुदिनी हो ।वीरकुवंरी जी ने पिता रतनसिंह को बताया तो उन्होंने वैद्य को भेजा ।वैद्य जी ने निरीक्षण करके बताया  बाईसा को कोई रोग नहीं , केवल दुर्बलता है । वैद्य जी गये तो मीरा मन ही मन में कहने लगी  कि यह वैद्य तो अनाड़ी है ,इसको मेरे रोग का मर्म क्या समझ में आयेगा । मीरा ने इकतारा लिया और अपने ह्रदय की सारी पीड़ा इस पद में उड़ेल दी..

ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी ,
मेरो दरद न जाणे कोय ।
सूली ऊपर सेज हमारी ,
सोवण किस विध होय ।
गगन मँडल पर सेज पिया की,
किस विध मिलना होय ॥
घायल की गति घायल जाणे,
जो कोई घायल होय ।
जौहर की गति जौहरी जाणे,
और न जाणे कोय ॥
दरद की मारी बन बन डोलूँ,
वैद मिल्या नहीं कोय ।
मीरा की प्रभु पीर मिटै जब,
वैद साँवरिया होय ॥

मीरा श्याम कुन्ज में अपने गिरधर के समक्ष बैठी उन्हें अश्रुसिक्त नेत्रों से निहोरा कर रही थी ।

बाईसा ! बाईसा हुकम ! केसर दौड़ी हुई आयी । उसका मुख प्रसन्नता से खिला हुआ था । बाईसा जिन्होंने आपको गिरधरलाल बख्शे थे न, वे संत नगर मन्दिर में पधारे हैं । एक ही सांस में केसर ने सब बतलाया ।

ठाकुर ने बड़ी कृपा की जो इस समय संत दर्शन का सुयोग बनाया । मीरा ने प्रसन्नतापूर्वक कहा । जा केसर उन्हें राजमन्दिर में बुला ला ! मैं तेरा अहसान मानूँगी ।

अहसान क्या बाईसा हुकम ! मैं तो आपकी चरण रज हूँ ।
मैं तो अपने घर से आ रही थी तो वे मुझे रास्ते में मिले , उन्होंने मुझसे सब बात कहकर यह प्रसादी तुलसी दी और कहा कि मुझे एक बार मेरे ठाकुर जी के दर्शन करा दो । अपने ठाकुर जी का नाम लेते ही उनकी आँखों से आँसू बहने लगे ।बाईसा ! उनका नाम भी गिरधरदास है ।

मीरा शीघ्रता से उठकर महल में भाई जयमल के पास गई और उनसे सारी बात कही । उन संत को आप कृपया कर श्याम कुन्ज ले पधारिये भाई ।

जीजा ! किसी को ज्ञात हुआ तो गज़ब हो जायेगा ।आजकल तो राजपुरोहित जी नगर के मन्दिर से ही आने वाले संतो का सत्कार कर विदा कर देते है ।सब कहते है ,इन संत बाबाओं ने ही मीरा को बिगाड़ा है ।

म्हूँ आप रे पगाँ पड़ू भाई ।! मीरा रो पड़ी । भगवान आपरो भलो करेला ।

आप पधारो जीजा ! मैं उन्हें लेकर आता हूँ ।किन्तु किसी को ज्ञात न हो ।पर जीजा , मैंने तो सुना है कि आप जीमण (खाना ) नहीं आरोगती ,आभूषण नहीं धारण नहीं करती ।ऐसे में मैं अगर साधु ले आऊँ और आप गाने -रोने लग गई तो सब मुझ पर ही बरस पड़ेगें ।

नहीं भाई ! मैं अभी जाकर अच्छे वस्त्र आभूषण पहन लेती हूँ ।और गिरधर का प्रसाद भी रखा है ।संत को जीमा कर मैं भी पा लूँगी ।और आप जो भी कहें , मैं करने को तैयार हूँ ।

और कुछ नहीं जीजा! बस विवाह के सब रीति रिवाज़ सहज से कर लीजिएगा ।आपको पता है जीजा आपके किसी हठ की वज़ह से बात युद्ध तक भी पहुँच सकती है ।आपका विवाह और विदाई सब निर्विघ्न हो जाये- इसकी चिन्ता महल में सबको हो रही है ।

बहन -बेटी इतनी भारी होती है भाई ? मीरा ने भरे मन से कहा ।

नहीं जीजा ! जयमल केवल इतना ही बोल पाये ।

आप उन संत को ले आईये भाई ! मैं वचन देती हूँ कि ऐसा कुछ न करूँगी , जिससे मेरी मातृभूमि पर कोई संकट आये अथवा मेरे परिजनों का मुख नीचा हो ।आप सबकी प्रसन्नता पर मीरा न्यौछावर है ।बस अब तो आप संत दर्शन करा दीजिये भाई !

गिरधरदास जी ने जब श्याम कुन्ज में प्रवेश किया तो वहाँ का दृश्य देखकर वे चित्रवत रह गये ।चार वर्ष की मीरा अब पन्द्रह वर्ष की होने वाली थी ।सुन्दर वस्त्र आभूषणो से सज्जित उसका रूप खिल उठा था ।सुन्दर साड़ी के अन्दर काले केशों की मोटी नागिन सी चोटी लटक रही थी ।अधरों पर मुस्कान और प्रेममद से छके नयनों में विलक्षण तेज़ था ।श्याम कुन्ज देवागंना जैसे उसके रूप से प्रभासित था ।गिरधर दास उसे देखकर ठाकुर जी के दर्शन करना भूल गये ।

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आगमी अंकों में जारी
नमो राघवाय

शनिवार, 30 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १४

॥जय श्री राम॥

वीरकुवंरी जी एक बार फिर मीरा के तर्क के आगे चुप हो चली गई ।मीरा श्याम कुन्ज में अकेली रह गई । आजकल दासियों को भी कामों की शिक्षा दी जा रही है क्योंकि उन्हें भी मीरा के साथ चितौड़ जाना है ।मीरा ने एकान्त पा फिर आर्त मन से प्रार्थना आरम्भ की

तुम सुनो दयाल म्हाँरी अरजी ।
भवसागर में बही जात हूँ काढ़ो तो थाँरी मरजी।
या संसार सगो नहीं कोई साँचा सगा रघुबर जी॥
मात पिता अर कुटुम कबीलो सब मतलब के गरजी।
मीरा की प्रभु अरजी सुण लो, चरण लगावो थाँरी मरजी॥

मीरा श्याम कुन्ज में एकान्त में गिरधर के समक्ष बैठी है ।आजकल दो ही भाव उस पर प्रबल होते है याँ तो ठाकुर जी की करूणा का स्मरण कर उनसे वह कृपा की याचना करती है और याँ फिर अपने ही भाव- राज्य में खो अपने श्यामसुन्दर से बैठे बातें करती रहती है ।

मीरा गाते गाते अपने भाव जगत में खो गई -वह सिर पर छोटी सी कलशी लिए यमुना जल लेकर लौट रही है ।उसके तृषित नेत्र इधरउधर निहार कर अपना धन खोज रहे है । वो यहीं कहीं होंगे -आयेंगे -नहीं आयेंगे ..बस इसी ऊहापोह में धीरेधीरे चल रही थी कि पीछे से किसी ने मटकी उठा ली ।उसने अचकचाकर ऊपर देखा तो कदम्ब पर एक हाथ से डाल पकड़े और एक हाथ में कलशी लटकाये मनमोहन बैठे हँस रहे है ।लाज के मारे उसकी दृष्टि ठहर नहीं रही ।लज्जा नीचे और प्रेम उत्सुकता ऊपर देखने को विवश कर रही है ।वे एकदम वृक्ष से उसके सम्मुख कूद पड़े ।वह चौंककर चीख पड़ी , और साथ ही उन्हें देख लजा गई ।

डर गई न ? उन्होंने हँसते हुए पूछा और हाथ पकड़ कर कहा - चल आ, थोड़ी देर बैठकर बातें करें ।सघन वृक्ष तले एक शिला पर दोनों बैठ गये । मुस्कुरा कर बोले , तुझे क्या लगा कोई वानर कूद पड़ा है क्या ? अभी पानी भरने का समय है क्या ? दोपहर में पता नहीं घाट नितान्त सूने रहते है ।जो कोई सचमुच वानर आ जाता तो ?

तुम हो न । उसके मुख से निकला ।
मैं क्या यहाँ ही बैठा ही रहता हूँ ? गईयाँ नहीं चरानी मुझे ?

एक बात कहूँ ?  मैने सिर नीचा किए हुये कहा ।
एक नहीं सौ कह , पर माथा तो ऊँचा कर ! तेरो मुख ही नाय दिख रहो मोकू । उन्होंने मुख ऊँचा किया तो फिर लाज ने आ घेरा ।
अच्छो -अच्छो मुख नीचो ही रहने दे ।कह, का बात है ?
तुम्हें कैसे प्रसन्न किया जा सकता है ? बहुत कठिनाई से मैंने कहा ।
तो सखी ! तोहे मैं अप्रसन्न दीख रहयो हूँ ।
नहीं  मेरा वो मतलब नहीं था . ।सुना है . तुम प्रेम से वश में होते हो ।
मोको वश में करके क्या करेगी सखी ! नाथ डालेगी कि पगहा बाँधेगी ? मेरे वश हुये बिना तेरो कहा काज अटक्यो है भला ?
सो नहीं श्यामसुन्दर !
तो फिर क्या ? कब से पूछ रहो हूँ ।तेरो मोहढों (मुख) तो पूरो खुले हु नाय।एकहु बात पूरी नाय निकसै ।अब मैं भोरो- भारो कैसे समझूँगो ?
सुनो श्यामसुन्दर ! मैंने आँख मूँदकर पूरा ज़ोर लगाकर कह दिया - मुझे तुम्हारे चरणों में अनुराग चाहिए ।
सो कहा होय सखी ? उन्होंने अन्जान बनते हुये पूछा ।
अपनी विवशता पर मेरी आँखों में आँसू भर आये ।घुटनों में सिर दे मैं रो पड़ी ।
सखी , रोवै मति ।उन्होंने मेरे आँसू पौंछते हुये पूछा -और ऐसो अनुराग कैसो होवे री ?
सब कहवें , उसमें अपने सुख की आशा  इच्छा नहीं होती।
तो और कहा होय ? श्यामसुन्दर ने पूछा ।
बस तुम्हारे सुख की इच्छा ।
और कहा अब तू मोकू दुख दे रही है ?ऐसा कह हँसते हुये मेरी मटकी लौटाते हुये बोले , ले अपनी कलशी ! बावरी कहीं की !
और वह वन की ओर दौड़ गये ।मैं वहीं सिर पर मटकी ठगी सी बैठी रही ।

विवाह के उत्सव घर में होने लगे- हर तरफ कोलाहल सुनाई देता था । मेड़ते में हर्ष समाता ही न था ।मीरा तो जैसी थी , वैसी ही रही । विवाह की तैयारी में मीरा को पीठी (हल्दी) चढ़ी ।उसके साथ ही दासियाँ गिरधरलाल को भी पीठी करने और गीत गाने लगी ।

मीरा को किसी भी बात का कोई उत्साह नहीं था । किसी भी रीति रिवाज़ के लिए उसे श्याम कुन्ज से खींच कर लाना पड़ता था ।जो करा लो , सो कर देती ।न कराओ तो गिरधर लाल के वागे (पोशाकें) , मुकुट ,आभूषण संवारती , श्याम कुन्ज में अपने नित्य के कार्यक्रम में लगी रहती ।खाना पीना , पहनना उसे कुछ भी नहीं सुहाता ।श्याम कुन्ज अथवा अपने कक्ष का द्वार बंद करके वह पड़ी -पड़ी रोती रहती ।

मीरा का विरह बढ़ता जा रहा है ।उसके विरह के पद जो भी सुनता , रोये बिना न रहता। किन्तु सुनने का , देखने का समय ही किसके पास है ? सब कह रहे है कि मेड़ता के तो भाग जगे है कि हिन्दुआ सूरज का युवराज इस द्वार पर तोरण वन्दन करने आयेगा ।उसके स्वागत में ही सब बावले हुये जा रहे है ।कौन देखे-सुने कि मीरा क्या कह रही है ?

वह आत्महत्या की बात सोचती

ले कटारी कंठ चीरूँ कर लऊँ मैं अपघात।
आवण आवण हो रह्या रे नहीं आवण की बात ॥

किन्तु आशा मरने नहीं देती । जिया भी तो नहीं जाता , घड़ी भर भी चैन नहीं था । मीरा अपनी दासियों -सखियों से पूछती कि कोई संत प्रभु का संदेशा लेकर आये है ? उसकी आँखें सदा भरी भरी रहती,मीरा का विरह बढ़ता जा रहा है ।उसके विरह के पद जो भी सुनता , रोये बिना न रहता ।

कोई कहियो रे प्रभु आवन की,
आवन की मनभावन की ॥
आप न आवै लिख नहीं भेजे ,
बान पड़ी ललचावन की ।
ऐ दोऊ नैण कह्यो नहीं मानै,
नदिया बहै जैसे सावन की॥
कहा करूँ कछु बस नहिं मेरो,
पाँख नहीं उड़ जावन की ।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे ,
चेरी भई तेरे दाँवन की॥
कोई कहियो रे प्रभु आवन की,
आवन की मनभावन की..

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय

बुधवार, 27 सितंबर 2017

मीरा चरित्र - भाग १३

॥जय श्री राम॥

भोजराज श्याम कुन्ज से प्रतिज्ञा कर अपने डेरे लौट आये ।वहाँ आकर कटे वृक्ष की भाँति पलंग पर जा पड़े ।पर चैन नहीं पड़ रहा था ।कमर में बंधी कटार चुभी , तो म्यान से बाहर निकाल धार देखते हुये अनायास ही अपने वक्ष पर तान ली। एक क्षण में ही लगा जैसे बिजली चमकी हो ।अंतर में मीरा आ खड़ी हुईं ।उदास मुख ,कमल- पत्र पर ठहरे ओस-कण से आँसू गालों पर चमक रहे है ।जलहीन मत्स्या (मछली) सी आकुल दृष्टि मानो कह रही हो  आप ऐसा करेंगे -तो मेरा क्या होगा ?

भोजराज ने तड़पकर कटार दूर फैंक दी ।मेवाड़ का उत्तराधिकारी , लाखों वीरों का अग्रणी, जिसका नाम सुनकर ही शत्रुओं के प्राण सूख जाते है और दीन -दुखी श्रद्धा से जयजयकार कर उठते है ,जिसे देख माँ की आँखों में सौ- सौ सपने तैर उठते है वही मेदपाट का भावी नायक आज घायल शूर की भाँति धरा पर पड़ा है ।आशा -अभिलाषा और यौवन की मानों अर्थी उठ गई हो ।उनका धीर -वीर ह्रदय प्रेम पीड़ा से कराह उठा ।उन्हें इस दुख में भाग बाँटने वाला कोई दिखाई नहीं देता ।उनके कानों में मीरा की गिरधर को करूण पुकार

म्हाँरा सेठ बोहरा , ब्याज मूल काँई जोड़ो।
गिरधर लाल प्रीति मति तोड़ो ॥

गूँज रही है ।हाय ! कैसा दुर्भाग्य है इस अभागे मन का ? कहाँ
जा लगा यह ? जहाँ इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं ।पाँव तले रूँदने का भाग्य लिखाकर आया बदनसीब ! मीरा.. कितना मीठा नाम है यह, जैसे अमृत से सिंचित हो ।अच्छा इसका अर्थ क्या है भला ?किससे पूछुँ? अब तो .. उन्हीं से पूछना होगा ।उनके .चित्तौड़ आने पर । उनके होंठों पर मुस्कान , ह्रदय में विद्युत तरंग थिरक गई ।वे मीरा से मानों प्रत्यक्ष बात करने लगे - मुझे केवल तुम्हारे दर्शन का अधिकार चाहिए तुम प्रसन्न रहो.तुमहारी सेवा का सुख पाकर यह भोज निहाल हो जायेगा ।मुझे और कुछ नहीं चाहिए  कुछ भी नहीं ।

अगले दिन ही भोजराज ने गिरिजा बुआ से और वीरमदेव जी से घर जाने की आज्ञा माँगी ।गिरिजा जी ने भतीजे का मुख थोड़ा मलिन देख पूछा तो भोजराज ने हँस कर बात टाल दी ।हाँलाकि वे मेड़ता में सबका सम्मान करते पर अब उनका यहां मन न लग रहा था । भोजराज चित्तौड़ आ गये पर उनका मन अब यहाँ भी नहीं लगता था ।न जाने क्यों अब उन्हें एकान्त प्रिय लगने लगा ।एकान्त मिलते ही उनका मन श्याम कुन्ज में पहुँच जाता ।रोकते- रोकते भी वह उन बड़ी -बड़ी झुकी आँखों , स्वर्ण गौर वर्ण, कपोलों पर ठहरी अश्रु बूँदों, सुघर नासिका , उसमें लगी हीरक कील , कानों में लटकती झूमर , वह आकुल व्याकुल दृष्टि ,उस मधुर कंठ-स्वर के चिन्तन में खो जाता ।वे सोचते ,एक बार भी तो उसने आँख उठाकर नहीं देखा मेरी ओर ।पर क्यों देखे ? क्या पड़ी है उसे ? उसका मन तो अपने अराध्य गिरधर में लगा है ।यह तो तू ही है , जो अपना ह्रदय उनके चरणों में पुष्प की तरह चढ़ा आया है, जहाँ स्वीकृति के कोई आसार भी नहीं और न ही आशा ।


मेड़ता से गये पुरोहित जी के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहित और उनकी पत्नी मीरा को देखने आये ।राजमहल में उनका आतिथ्य सत्कार हो रहा है ।पर मीरा को तो जैसे वह सब दीखकर भी दिखाई नहीं दे रहा है ।उसे न तो कोई रूचि है न ही कोई आकर्षण ।

दूसरे दिन माँ सुन्दर वस्त्राभूषण लेकर एक दासी के साथ मीरा के पास आई ।आग्रह से स्थिति समझाते हुये मीरा को सब पहनने को कहा ।मीरा ने बेमन से कहा ,आज जी ठीक नहीं है , भाबू ! रहने दीजिये , किसी और दिन पहन लूँगी । माँ खिन्न हो कर उठकर चली गई ।तो मीरा ने उदास मन से तानपुरा उठाया और गाने लगी .

राम नाम मेरे मन बसियो रसियो राम रिझाऊँ ए माय ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर रज चरणन की पाऊँ ए माय ॥

भजन विश्राम कर वह उठी ही थी कि माँ और काकीसा के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहित जी की पत्नी ने श्याम कुन्ज में प्रवेश किया ।मीरा उनको यथायोग्य प्रणाम कर बड़े संकोच के साथ एक ओर हटकर ठाकुर जी को निहारती हुईं खड़ी हो गई । पुरोहितानी जी ने तो ऐसे रूप की कल्पना भी न की थी ।वह , लज्जा से सकुचाई मीरा के सौंदर्य से विमोहित सी हो गई और उनसे प्रणाम का उत्तर ,आशीर्वाद भी स्पष्ट रूप से देते न बना ।वे कुछ देर मीरा को एकटक निहारते ही बैठी रही ।दासियों ने आगे बढ़िया चरणामृत प्रसाद दिया ।कुछ समय और यूँ ही मन्त्रमुग्ध बैठी फिर काकीसा के साथ चली गई । माँ ने सबके जाने के बाद फिर मीरा से कहा , तेरा क्या होगा , यह आशंका ही मुझे मारे डालती है ।अरे विनोद में कहे हुये भगवान से विवाह करने की बात से क्या जगत का व्यवहार चलेगा ? साधु-संग ने तो मेरी कोमलांगी बेटी को बैरागन ही बना दिया है ।मैं अब किससे जा कर बेटी के सुख की भिक्षा माँगू?

माँ आप क्यों दुखी होती है ? सब अपने भाग्य का लिखा ही पाते है ।यदि मेरे भाग्य में दुख लिखा है तो क्या आप रो -रो कर उसे सुख में पलट सकती है ?तब जो हो रहा है उसी में संतोष मानिये ।मुझे एक बात समझ में नहीं आती भाबू ! जो जन्मा है वह मरेगा ही , यह बात तो आप अच्छी तरह जानती है ।फिर जब आपकी पुत्री को अविनाशी पति मिला है तो आप क्यों दुख मना रही है ?आपकी बेटी जैसी भाग्यशालिनी और कौन है , जिसका सुहाग अमर है ।

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आगामी अंकों में जारी
नमो राघवाय