बुधवार, 22 जून 2016

गुरु : आध्यात्मिक ज्ञान का मूर्तिमान रूप

किसी भी क्षेत्र में मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु शिक्षक का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यही सूत्र अध्यात्म के क्षेत्र में भी लागू होता है । ‘अध्यात्म’ सूक्ष्म-स्तरीय विषय है, अर्थात बुद्धि की समझ से परे है । इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक अथवा गुरु कौन हैं, यह निश्चित रूप से पहचानना असंभव होता है । किसी शिक्षक अथवा प्रवचनकार की तुलना में गुरु पूर्णतः भिन्न होते हैं । हमारे इस विश्व में वे आध्यात्मिक प्रतिभा से परिपूर्ण दीपस्तंभ-समान होते हैं । वे हमें सभी धर्म तथा संस्कृतियों के मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धान्त सिखाते हैं ।

गुरु की परिभाषा :

'गुरु' शब्द में 'गु' का अर्थ है 'अंधकार' और 'रु' का अर्थ है 'प्रकाश' अर्थात गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ 'अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक'। सही अर्थों में गुरु वही है जो अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करे और जो उचित हो उस ओर शिष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। गुरु उसको कहते हैं जो वेद-शास्त्रों का गृणन (उपदेश) करता है अथवा स्तुत होता है।
संक्षेप में, गुरु वे हैं, जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं।

गुरु का महत्व :
गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस जी  में लिखा है –

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई ॥

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी श्रीरामचरित मानस जी में लिखते हैं –

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर॥

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार॥

मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त  क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेना अज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।

किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियां जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान॥

गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।

गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।

सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।

आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को श्रीमद्भागवत गीता जी में यही संदेश दिया था –


सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्या माम शुचः॥ (गीता 18/66)
अर्थात:-
सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।

गुरु : लक्षण और शास्त्रों में वर्णन


मनुस्मृति में गुरु की परिभाषा निम्नांकित है-

निषेकादिनी कर्माणि यः करोति यथाविधि।
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥

जो विप्र निषक आदि संस्कारों को यथा विधि करता है और अन्न से पोषण करता है वह 'गुरु' कहलाता है। इस परिभाषा से पिता प्रथम गुरु है, तत्पश्चात पुरोहित, शिक्षक आदि। मंत्रदाता को भी गुरु कहते हैं।

श्रीकूर्म पुराण में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची मिलती है:

उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपति:। 
मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥ 
बंधुर्ज्येष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरव: स्मृता:॥
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥ 
श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रीषु। 
इत्युत्को गुरुवर्गोयं मातृत: पितृतो द्विजा:॥

इनका शिष्टाचार, आदर और सेवा करने का विधान है।

युत्किकल्पतरु में अच्छे गुरु के लक्षण कहे गए है :-

सदाचार: कुशलधी: सर्वशास्त्रार्थापारग:। 
नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारक: शुचि:॥ 
अपर्वमैथुनपुर: पितृदेवार्चने रत:।
गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत सदा॥ 
दयावान शीलसम्पन्न: सत्कुलीनो महामति:।
परदारेषु विमुखो दृढसंकल्पको द्विज:॥
अन्यैश्च वैदिकगुणैगुणैर्युक्त: कार्यो गुरुर्नृपै:।
एतैरेव गुणैर्युक्त: पुरोधा: स्यान्महीर्भुजाम्॥ 

मंत्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं:
शांतो दांत: कुलीनश्च विनीत: शुद्धवेशवान्।
शुद्धाचार: सुप्रतिष्ठ: शुचिर्दक्ष: सुबुद्धिमान॥ 
आश्रामी ध्याननिष्ठश्च मंत्र-तंत्र-विशारद:।
निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते॥
उद्धर्तुच्ञै व संहतुँ समर्थो ब्राह्माणोत्तम:।
तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुच्यते॥

सामान्यत: द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है-

गुरुग्निद्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु:।
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥


उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थत: गुरु है।

'गुरुत्व' के लिए वर्जित पुरुषों की सूची श्रीकालिका पुराण  में इस प्रकार दी हुई है

अभिशप्तमपुत्रच्ञ सन्नद्धं कितवं तथा। 
क्रियाहीनं कल्पाग्ड़ वामनं गुरुनिन्दकम्॥
सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुंत्रेषु वर्जयेत।
गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात मूलशद्धौ सदा शुभम्॥


गुरु का सम्मान :
धार्मिक गुरु के प्रति भक्ति की परम्परा भारत में अति प्राचीन है। प्राचीन काल में गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य का परम धर्म होता था। प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली में वेदों का ज्ञान व्यक्तिगत रूप से गुरुओं द्वारा मौखिक शिक्षा के माध्यम से शिष्यों को दिया जाता था। गुरु शिष्य का दूसरापिता माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था। आधुनिक काल में गुरुसम्मान और भी अधिक बताया गया है।
बिना गुरु की आज्ञा के कोई हिंदु किसी सम्प्रदाय का सदस्य नहीं हो सकता। गुरु की महिमा का वर्णन कबीरदास जी ने कुछ इस प्रकार किया है :-

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बहि गए, सखि जीव अभिमान॥
अर्थात :
अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे।

सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
अर्थात :
सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥
अर्थात :
गुरु और भगवान दोनों आकर खड़े हो जाएँ तो पहले किसके चरण स्पर्श करें? सचमुच यह यक्ष प्रश्न है लेकिन गुरु के चरण-स्पर्श करना ही श्रेष्ठतर है, क्योंकि वे ही भगवान तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं।

गुरु और शिष्य :
 सद्गुरु को अपने शिष्य के बारे में संपूर्ण ज्ञान होता है । विद्यार्थी में लगन है अथवा नहीं और वह चूकें कहां करता है। विद्यार्थी द्वारा गुरु की इस क्षमता से अवगत होने के परिणाम स्वरूप, विद्यार्थी अधिकतर कुकृत्य करने से स्वयं को बचा पाता है ।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥
अर्थात :
गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।

गुरु शिष्य में न्यूनता की भावना निर्माण नहीं होने देते कि वह गुरु की तुलना में कनिष्ठ है। पात्र शिष्य में वे न्यूनता की भावना को हटा देते हैं और उसे गुरु (तत्त्व) का सर्वव्यापित्व प्रदान करते हैं ।
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
अर्थात :-
गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।

जब कोई शिष्य देहधारी गुरु के मार्गदर्शनानुसार साधना करता है, तब आध्यात्मिक प्रगति के लिए न्यूनतम प्रयत्न करने पडते हैं क्योंकि वे उचित पद्धति से किए जाते हैं, अन्यथा चूकें करने की संभावना अधिक होती है ।
धर्म ग्रंथों का भावार्थ (गूढ अर्थ) समझ पाना कोई सरल बात नहीं है । अधिकांश समय पर धर्म ग्रंथों और पुस्तकों में अनुचित अर्थ निकाला जाने की आशंका होती है। आध्यात्मिक मार्गदर्शक के अभाव में प्रगति की उसी अवस्था में स्थिर रहने की अथवा निचले स्तर पर आने की सम्भावना अधिक होती है।आध्यात्मिक मार्गदर्शक के अभाव में प्रगति की उसी अवस्था में स्थिर रहने की अथवा नीचले स्तर पर आने की संभावना होती है ।

ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥
अर्थात:-
ज्ञान, सन्त - समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य - स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।


देहधारी गुरु के विशेष लक्षण :

गुरु धर्म के परे होते हैं और संपूर्ण मानव जाति की ओर समान दृष्टि से देखते हैं। संस्कृति, राष्ट्रीयता अथवा लिंग के आधार पर वे भेद नहीं करते। जिसमें आध्यात्मिक उन्नति की लगन है, ऐसे शिष्य (विद्यार्थी) की प्रतीक्षा में रहते हैं। गुरु किसी को धर्मांतरण करने के लिए नहीं कहत।
सर्वज्ञानी होने से शिष्य स्थूल रूप से पास में न होने पर भी गुरु का शिष्य की ओर निरंतर ध्यान रहता है। गुरु शिष्य को साधना के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर उसके आध्यात्मिक स्तर और क्षमता के अनुसार मार्गदर्शन करते हैं। वे शिष्य को कभी उसकी क्षमता से अधिक नहीं सीखाते। गुरु सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर ही सीखाते हैं।

यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है :
मेघ सर्वत्र समान वर्षा करते हैं, जब कि पानी केवल गढ्ढों में ही एकत्र होता है और खडे पर्वत सूखे रह जाते है। इसी प्रकार गुरु और संत भेद नहीं करते। उनकी कृपा का वर्षाव सभी पर एक समान ही होता है; परंतु जिनमें सीखने की और आध्यात्मिक प्रगति करने की शुद्ध इच्छा होती है, वे गढ्ढों समान होते हैं, जो कि कृपा और कृपा के लाभ ग्रहण करने में सफल होते हैं।

सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥
अर्थात:
सद् गुरु मिल गये - यह बात तब जान जानो, जब तुम्हारे हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|

शास्त्रों ने गुरु का स्थान सर्वोच्च बताया है। गुरुदेव भगवान ही हमारे अज्ञान तिमिर को मिटा कर ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करके हमें भगवद् प्रेम और धर्म के मार्ग पर अग्रसर करते है।

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परम ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः॥
अर्थात-
गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवानशंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं।


गुरुदेव भगवान की जय !
नमो राघवाय