बुधवार, 22 जून 2016

गुरु : आध्यात्मिक ज्ञान का मूर्तिमान रूप

किसी भी क्षेत्र में मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु शिक्षक का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यही सूत्र अध्यात्म के क्षेत्र में भी लागू होता है । ‘अध्यात्म’ सूक्ष्म-स्तरीय विषय है, अर्थात बुद्धि की समझ से परे है । इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक अथवा गुरु कौन हैं, यह निश्चित रूप से पहचानना असंभव होता है । किसी शिक्षक अथवा प्रवचनकार की तुलना में गुरु पूर्णतः भिन्न होते हैं । हमारे इस विश्व में वे आध्यात्मिक प्रतिभा से परिपूर्ण दीपस्तंभ-समान होते हैं । वे हमें सभी धर्म तथा संस्कृतियों के मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धान्त सिखाते हैं ।

गुरु की परिभाषा :

'गुरु' शब्द में 'गु' का अर्थ है 'अंधकार' और 'रु' का अर्थ है 'प्रकाश' अर्थात गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ 'अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक'। सही अर्थों में गुरु वही है जो अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करे और जो उचित हो उस ओर शिष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। गुरु उसको कहते हैं जो वेद-शास्त्रों का गृणन (उपदेश) करता है अथवा स्तुत होता है।
संक्षेप में, गुरु वे हैं, जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं।

गुरु का महत्व :
गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस जी  में लिखा है –

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई ॥

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी श्रीरामचरित मानस जी में लिखते हैं –

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर॥

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार॥

मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त  क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेना अज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।

किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियां जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान॥

गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।

गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।

सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।

आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को श्रीमद्भागवत गीता जी में यही संदेश दिया था –


सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्या माम शुचः॥ (गीता 18/66)
अर्थात:-
सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।

गुरु : लक्षण और शास्त्रों में वर्णन


मनुस्मृति में गुरु की परिभाषा निम्नांकित है-

निषेकादिनी कर्माणि यः करोति यथाविधि।
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥

जो विप्र निषक आदि संस्कारों को यथा विधि करता है और अन्न से पोषण करता है वह 'गुरु' कहलाता है। इस परिभाषा से पिता प्रथम गुरु है, तत्पश्चात पुरोहित, शिक्षक आदि। मंत्रदाता को भी गुरु कहते हैं।

श्रीकूर्म पुराण में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची मिलती है:

उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपति:। 
मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥ 
बंधुर्ज्येष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरव: स्मृता:॥
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥ 
श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रीषु। 
इत्युत्को गुरुवर्गोयं मातृत: पितृतो द्विजा:॥

इनका शिष्टाचार, आदर और सेवा करने का विधान है।

युत्किकल्पतरु में अच्छे गुरु के लक्षण कहे गए है :-

सदाचार: कुशलधी: सर्वशास्त्रार्थापारग:। 
नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारक: शुचि:॥ 
अपर्वमैथुनपुर: पितृदेवार्चने रत:।
गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत सदा॥ 
दयावान शीलसम्पन्न: सत्कुलीनो महामति:।
परदारेषु विमुखो दृढसंकल्पको द्विज:॥
अन्यैश्च वैदिकगुणैगुणैर्युक्त: कार्यो गुरुर्नृपै:।
एतैरेव गुणैर्युक्त: पुरोधा: स्यान्महीर्भुजाम्॥ 

मंत्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं:
शांतो दांत: कुलीनश्च विनीत: शुद्धवेशवान्।
शुद्धाचार: सुप्रतिष्ठ: शुचिर्दक्ष: सुबुद्धिमान॥ 
आश्रामी ध्याननिष्ठश्च मंत्र-तंत्र-विशारद:।
निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते॥
उद्धर्तुच्ञै व संहतुँ समर्थो ब्राह्माणोत्तम:।
तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुच्यते॥

सामान्यत: द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है-

गुरुग्निद्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु:।
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥


उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थत: गुरु है।

'गुरुत्व' के लिए वर्जित पुरुषों की सूची श्रीकालिका पुराण  में इस प्रकार दी हुई है

अभिशप्तमपुत्रच्ञ सन्नद्धं कितवं तथा। 
क्रियाहीनं कल्पाग्ड़ वामनं गुरुनिन्दकम्॥
सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुंत्रेषु वर्जयेत।
गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात मूलशद्धौ सदा शुभम्॥


गुरु का सम्मान :
धार्मिक गुरु के प्रति भक्ति की परम्परा भारत में अति प्राचीन है। प्राचीन काल में गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य का परम धर्म होता था। प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली में वेदों का ज्ञान व्यक्तिगत रूप से गुरुओं द्वारा मौखिक शिक्षा के माध्यम से शिष्यों को दिया जाता था। गुरु शिष्य का दूसरापिता माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था। आधुनिक काल में गुरुसम्मान और भी अधिक बताया गया है।
बिना गुरु की आज्ञा के कोई हिंदु किसी सम्प्रदाय का सदस्य नहीं हो सकता। गुरु की महिमा का वर्णन कबीरदास जी ने कुछ इस प्रकार किया है :-

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बहि गए, सखि जीव अभिमान॥
अर्थात :
अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे।

सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
अर्थात :
सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥
अर्थात :
गुरु और भगवान दोनों आकर खड़े हो जाएँ तो पहले किसके चरण स्पर्श करें? सचमुच यह यक्ष प्रश्न है लेकिन गुरु के चरण-स्पर्श करना ही श्रेष्ठतर है, क्योंकि वे ही भगवान तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं।

गुरु और शिष्य :
 सद्गुरु को अपने शिष्य के बारे में संपूर्ण ज्ञान होता है । विद्यार्थी में लगन है अथवा नहीं और वह चूकें कहां करता है। विद्यार्थी द्वारा गुरु की इस क्षमता से अवगत होने के परिणाम स्वरूप, विद्यार्थी अधिकतर कुकृत्य करने से स्वयं को बचा पाता है ।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥
अर्थात :
गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।

गुरु शिष्य में न्यूनता की भावना निर्माण नहीं होने देते कि वह गुरु की तुलना में कनिष्ठ है। पात्र शिष्य में वे न्यूनता की भावना को हटा देते हैं और उसे गुरु (तत्त्व) का सर्वव्यापित्व प्रदान करते हैं ।
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
अर्थात :-
गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।

जब कोई शिष्य देहधारी गुरु के मार्गदर्शनानुसार साधना करता है, तब आध्यात्मिक प्रगति के लिए न्यूनतम प्रयत्न करने पडते हैं क्योंकि वे उचित पद्धति से किए जाते हैं, अन्यथा चूकें करने की संभावना अधिक होती है ।
धर्म ग्रंथों का भावार्थ (गूढ अर्थ) समझ पाना कोई सरल बात नहीं है । अधिकांश समय पर धर्म ग्रंथों और पुस्तकों में अनुचित अर्थ निकाला जाने की आशंका होती है। आध्यात्मिक मार्गदर्शक के अभाव में प्रगति की उसी अवस्था में स्थिर रहने की अथवा निचले स्तर पर आने की सम्भावना अधिक होती है।आध्यात्मिक मार्गदर्शक के अभाव में प्रगति की उसी अवस्था में स्थिर रहने की अथवा नीचले स्तर पर आने की संभावना होती है ।

ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥
अर्थात:-
ज्ञान, सन्त - समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य - स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।


देहधारी गुरु के विशेष लक्षण :

गुरु धर्म के परे होते हैं और संपूर्ण मानव जाति की ओर समान दृष्टि से देखते हैं। संस्कृति, राष्ट्रीयता अथवा लिंग के आधार पर वे भेद नहीं करते। जिसमें आध्यात्मिक उन्नति की लगन है, ऐसे शिष्य (विद्यार्थी) की प्रतीक्षा में रहते हैं। गुरु किसी को धर्मांतरण करने के लिए नहीं कहत।
सर्वज्ञानी होने से शिष्य स्थूल रूप से पास में न होने पर भी गुरु का शिष्य की ओर निरंतर ध्यान रहता है। गुरु शिष्य को साधना के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर उसके आध्यात्मिक स्तर और क्षमता के अनुसार मार्गदर्शन करते हैं। वे शिष्य को कभी उसकी क्षमता से अधिक नहीं सीखाते। गुरु सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर ही सीखाते हैं।

यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है :
मेघ सर्वत्र समान वर्षा करते हैं, जब कि पानी केवल गढ्ढों में ही एकत्र होता है और खडे पर्वत सूखे रह जाते है। इसी प्रकार गुरु और संत भेद नहीं करते। उनकी कृपा का वर्षाव सभी पर एक समान ही होता है; परंतु जिनमें सीखने की और आध्यात्मिक प्रगति करने की शुद्ध इच्छा होती है, वे गढ्ढों समान होते हैं, जो कि कृपा और कृपा के लाभ ग्रहण करने में सफल होते हैं।

सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥
अर्थात:
सद् गुरु मिल गये - यह बात तब जान जानो, जब तुम्हारे हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|

शास्त्रों ने गुरु का स्थान सर्वोच्च बताया है। गुरुदेव भगवान ही हमारे अज्ञान तिमिर को मिटा कर ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करके हमें भगवद् प्रेम और धर्म के मार्ग पर अग्रसर करते है।

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परम ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः॥
अर्थात-
गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवानशंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं।


गुरुदेव भगवान की जय !
नमो राघवाय

गुरुवार, 5 मई 2016

भगवान एवं अवतार : अर्थ तथा प्रमाण


भगवान कौन है :

हिंदू धर्म की लगभग सभी विचारधाराएँ (चर्वाक को छोड़कर) यही मानती हैं कि कोई एक परम शक्ति है, जिसे ईश्वर कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण और श्रीमद्भागवत गीता जी में उस एक ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है।

ब्रह्म शब्द 'बृह' धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना, व्यास या विस्तृत होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। ब्रह्म वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है।

॥ ॐ ॥ 
॥ यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति। 
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
अथर्ववेद १०/८/१
भावार्थ: जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

हिंदू दर्शन, पुराण और वेदों में मतभेद ईश्वर के होने या नहीं होने में नहीं है। मतभेद उनके साकार या निराकार, सगुण या निर्गण स्वरूप को लेकर है। फिर भी ईश्वर की सत्ता में सभी विश्‍वास करते हैं। कुछ ईश्वर और उसकी सृष्टि में फर्क करते हैं और कुछ नहीं।

भगवान के लक्षण :
आइये अब चर्चा करते है भगवान के लक्षणों की। क्या लक्षण होते है भगवान के? क्या परिभाषा है भगवान की?
भगवान शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:-

भग+वान = भगवान

भग का अर्थ होता है (दिव्य) गुण और वान का अर्थ होता है धारण करने वाला, इस प्रकार भगवान का अर्थ होता है (दिव्य) गुणों को धारण करने वाला भगवान कहलाता है 'भगोस्ति अस्मिन् इति भगवानः'

किन्तु वे दिव्य गुण क्या है?
इसका उत्तर हमें प्राप्त होता है श्रीविष्णु पुराण में -
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस्य श्रीयः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णां भग इतिरणा ॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७४
भावार्थ:-
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य - ये भगवान के छह लक्षण या दिव्य गुण होते है।

शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्द्यते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
भावार्थ:
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म शब्द से अभिहित है, ये ही सभी कारणों का कारण है, परंतु इनका कोई कारण नही है। ये ही सम्पूर्ण जगत या अनंतानंत ब्रह्माण्ड के सर्वेसर्वा होने के कारण परब्रह्म कहलाते है।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७६ 

भावार्थ :
यह भगवान जैसा महान शब्द सिर्फ परब्रह्म परमेश्वर के लिए ही प्रयुक्त हो सकता है, किसी अन्य के लिए नहीं।


शास्त्रोचित निर्गुण सगुण विचार :

एक तरफ जहाँ भगवान को सगुण कहा जाता है वहीं दूसरी तरफ इन्हें निर्गुण कहा जाता है। शास्त्रों में भगवान को निर्गुण (निर्गुणं, निरञ्जनं) कहा गया है, इसका तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि भगवान में प्रकृति का कोई गुण नही है अन्यथा सगुण श्रुतियों का विरोध होगा। अतः एव, निर्गुण श्रुतियों के अनुसार भगवान के सर्वज्ञ, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आदि गुण बताये गए है -
एष आत्मापहतपाप्मा सत्यकामः सत्यसंकल्प: - छान्दोग्योपनिषद ८/१/५,
यः सर्वज्ञ: सर्ववित् - मुण्डकोपनिषद १/१/९,
सर्ववस्तुनिष्ठ सर्वप्रकारकज्ञानवान्

परंतु भगवान सगुण रूप में अनन्त गुणों से सुशोभित है, ऐसा वर्णन स्वयं भगवती श्रुतियां कर रही है ―
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वभाविकी ज्ञानबलाक्रिया च - श्वेताश्वेतरोपनिषद ६/८,

इसलिए वे प्रकृति-माया के गुणों से रहित होने के कारण 'निर्गुण' तथा स्वाभाविक ज्ञान, बल, क्रिया, वात्सल्य, करुणा, कृपा आदि अनन्त गुणों के आश्रय होने के कारण 'सगुण' भी है।

ऐसे भगवान को ही परमात्मा, परब्रह्म, परमेश्वर, श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीनारायण, आदि भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता है।

इसलिए वेदवाक्य है कि - " एक सत्य तत्व भगवान को विद्वान विभिन्न प्रकार से कहते है "
 "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति"

भक्त :
भगवान की भक्ति करने वाला भक्त कहलाता है। जैसे भक्त भगवान के दर्शनों के लिए लालायित रहता है, उनसे मिलने जाता है उसी प्रकार भगवान भी भक्तों के दर्शन हेतु जाते है।
जैसे, भक्त ध्रुव जी के दर्शनों के लिए श्रीहरि मधुवन जाते है:-
मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः ― श्रीमद्भागवत महापुराण ४/९/१

जैसे भक्त भगवान् की भक्ति करता है उसी तरह भगवान भी अपने भक्तों की भक्ति करते है। शास्त्रों में उन्हें भक्तों की भक्ति करने वाला बताया गया है :-
भगवान भक्तभक्तिमान् ― श्रीमद्भागवत महापुराण १०/८६/५९


अब ध्यान देने योग्य प्रश्न है कि ईश्वर आदि-स्रष्टि में समग्र ज्ञान वेदों के
माध्यम से दे चुके थे तो कौन सी बात की कमी रह गई थी जो बाद में भगवान् को अवतार लेकर पूरी करनी पड़ी ?

अब फिर से एक प्रश्न, अवतार क्या होता है? क्यों होता है? कहाँ है अवतारों का प्रमाण?

अवतार : अर्थ
हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, ईश्वर का पृथ्वी पर अवतरण (जन्म लेना) अथवा उतरना ही 'अवतार' कहलाता है। अवतार तत्व का द्योतक प्राचीनतम शब्द 'प्रादुर्भाव' है।
अवतार (धातु 'तृ' एवं उपसर्ग 'अव') शब्द के दो अर्थ होते है-
१. भगवान का अपनी स्वातंत्रय शक्ति के द्वारा भौतिक जगत में मूर्तरूप से आविर्भाव होना, प्रकट होना ,
२. उतरना अर्थात ऊपर से नीचे आना ।

अतः अवतार शब्द देवों के लिए प्रयुक्त होता है, जो मनुष्य रूप में या पशु के रूप में इस पृथ्वी पर आते (अवतीर्ण होते) हैं और तब तक रहते हैं जब तक कि वह उद्देश्य, जिसे वे लेकर यहाँ आते हैं, पूर्ण नहीं हो जाता।

प्रमाण :
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेद ही प्रमाण्य रूप में सामने आते हैं। ऋग्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भेऽन्तरजायमानो बहुधा विजायते।
भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।

रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभि: पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरय: शता दश ॥
भावार्थ :
भगवान भक्तों की प्रार्थनानुसार प्रख्यात होने के लिए माया के संयोग से अनेक रूप धारण करते हैं। उनके शत-शतरूप हैं।

अवतार का उद्देश्य :

इस प्रश्न का बहुत ही सुन्दर उत्तर हमें श्रीमद्भागवत गीता जी में प्राप्त होता है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ (अध्याय ४, श्लोक ७)
भावार्थ :
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ (अध्याय ४, श्लोक ८)
भावार्थ :
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप-धर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।

प्रभु के अवतार लेने संबंधी प्रश्न का प्रमाण गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने श्रीरामचरित मानस जी में भी दिया है ―
जब जब होइ धरम कै हानी। 
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी। 
करहि अनीति जाहि नहि बरनी। 
सीदहि बिप्र धेनु सुर धरनी। 
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। 
हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा। 
(श्रीरामचरित मानस, बालकाण्ड १२०.३-४)


उम्मीद करता हूँ कि आप सभी पढ़ने वालो को यह जानकारी अच्छी लगेगी।

नमो राघवाय


मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

ॐ तथा श्रीयंत्र में सम्बन्ध


ॐ  ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। इसे अनहद नाद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है। इसे प्रणवाक्षर (प्रणव+अक्षर) भी कहते है प्रणव का अर्थ होता है "प्रकर्षेण नूयते स्तूयते अनेन इति, नौति स्तौति इति वा प्रणवः"
प्रणव शब्द का अर्थ है, वह शब्द जिससे ईश्वर की भली भांति स्तुति की जाये या ऐसा अक्षर जिसका कभी क्षरण ना हो। सरल अर्थो में कहा जाये तो प्रणवाक्षर परमेश्वर का प्रतीक है।

परिचय तथा अर्थ :
वैसे तो इसका महात्म्य वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा योग दर्शन में मिलता है परन्तु खासकर माण्डुक्य उपनिषद में इसी प्रणव शब्द का बारीकी से समझाया गया है  |
माण्डुक्य उपनिषद  के अनुसार यह ओ३म् शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है- अ, उ, म। प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है, जैसे “अ” से व्यापक, सर्वदेशीय, और उपासना करने योग्य है. “उ” से बुद्धिमान, सूक्ष्म, सब अच्छाइयों का मूल, और नियम करने वाला है. “म” से अनंत, अमर, ज्ञानवान, और पालन करने वाला है. तथा यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतिक भी है |

कठोपनिषद में लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भागवत गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है।माण्डूक्योपनिषद में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है।

इसे अनहद नाद भी कहा गया है। यह एक ऐसी ध्वनि होती है जो उत्पन्न नहीं की जाती, स्वतः गूंजती रहती है। इसे स्थूल कानों से नहीं सुना जा सकता। ये ध्वनि ब्रह्मांड में हर समय हर जगह गूंजती रहती है।
तपस्वी और योगीजन जब ध्यान की गहरी अवस्था में उतरने लगते है तो यह नाद (ध्वनी) हमारे भीतर तथापि बाहर कम्पित होती स्पष्ट प्रतीत होने लगती है। साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है।

हाल ही में हुए प्रयोगों के निष्कर्षों के आधार पर सूर्य से आने वाली
रश्मियों में अ उ म की ध्वनी होती है इसकी पुष्टि भी हो चुकी है। ॐ को केवल सनातनियों के ईश्वरत्व का प्रतिक मानना उचित नही । जिस प्रकार सूर्य, वर्षा, जल तथा प्रकृति आदि किसी से भेदभाव नही करती, उसी प्रकार ॐ, वेद आदि भी समस्त मानव जाती के कल्याण हेतु है। यदि कोई इन्हें  केवल सनातनियों के ईश्वरत्व का प्रतिक मानें  तो इस हिसाब से सूर्य तथा समस्त ब्रह्माण्ड भी केवल हिन्दुओं का ही हुआ ना ? क्योकि सूर्य व ब्रह्मांड सदैव ॐ का उद्घोष करते है।

ॐ की विवेचना :
योगशास्त्र में लिखा हुआ है तस्य वाचकः प्रणवः अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव 'ॐ' है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता।

छान्दोग्योपनिषद्  में ऋषियों ने कहा है -
"ॐ इत्येतत् अक्षरः" अर्थात् "ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।" ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली। ब्राह्मण ग्रन्थ में उल्लेख है कि जो "कुश" के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।

"सिद्धयन्ति अस्य अर्था: सर्वकर्माणि च"

श्रीमद्मागवत् में ॐ के महत्व को कई बार रेखांकित किया गया है। श्री गीता जी के आठवें अध्याय में उल्लेख मिलता है कि जो ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है। ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है। अ उ म्। "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाने पर वहाँ की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है। मौन का महत्व ज्ञानियों ने बताया ही है। गीता जी में परमेश्वरश्रीकृष्ण ने मौन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वयं को मौनका ही पर्याय बताया है —
"मौनं चैवास्मि गुह्यानां"


"ध्यान बिन्दुपनिषद्" के अनुसार ॐ मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता। सनातन धर्म ही नहीं, भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी ॐ को महत्व प्राप्त है। बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार ॐ को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है। जैन दर्शन में भी ॐ के महत्व को दर्शाया गया है।

श्री गुरु नानकदेव ने भी ॐ के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है —
इक ओंकार सतनाम,
कर्ता पुरुष निरभौं,
निर्वेर अकालमूर्त… …

अर्थात एक ओंकार ही सत्यनाम है। ॐ सत्यनाम जपनेवाला पुरुष निर्भय, बैर-रहित एवं "अकाल-पुरुष के" सदृश हो जाता है।

वैज्ञानिक प्रयोगों का विवरण :

आधुनिक काल में  Hans Jenny (1904) जिन्हें cymatics का जनक कहा जाता है, ने ॐ ध्वनी से प्राप्त तरंगों पर कार्य किया ।
 Hans Jenny ने जब ॐ ध्वनी को रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित किया तब उन्हें वृताकार रचनाएँ तथा उसके मध्य कई निर्मित त्रिभुज दिखाई दिए जो आश्चर्यजनक रूप से श्री यन्त्र से मेल खाते थे ।

इसके पश्चात तो बस जेनी आश्चर्य से भर गये और उन्होंने संस्कृत के प्रत्येक अक्षर (52 अक्षर होते है जैसे अंग्रेजी में 26 है) को इसी प्रकार रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित किया तब उन्हें उसी अक्षर की रेत कणों द्वारा लिखित छवि प्राप्त हुई ।

सूर्य किरणों से उत्पन्न होने वाली ॐ की ध्वनि को सुनने के लिए कृपया नीचे दी गयी लिंक्स पर क्लिक करें-
https://youtu.be/TfoRAdDolqA
https://youtu.be/ZZQcLJjpdrI

निष्कर्ष :
1. ॐ ध्वनी को रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित करने पर प्राप्त छवि --> श्री यन्त्र
2. जैसा की हम जानते है श्री यन्त्र संस्कृत के 52 अक्षरों को व्यक्त करता है |
3. ॐ -->श्री यन्त्र-->संस्कृत वर्णमाला
4. ॐ --> संस्कृत

संस्कृत के संदर्भ में हमने सदैव यही सुना कि संस्कृत ईश्वर प्रदत्त भाषा है ।
श्रीब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि की उत्पति के समय संस्कृत की वर्णमाला का अविर्भाव हुआ। यह बात इस प्रयोग से स्पस्ट है कि ब्रह्म (ॐ मूल) से ही संस्कृत की उत्पति हुई ।
इस प्रयोग से स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत को देव भाषा या देववाणी क्यों कहा जाता है !अब समझ में आ गया होगा संस्कृत क्यों देव भाषा/ देव वाणी कही जाती है !!


शनिवार, 2 अप्रैल 2016

धर्म : स्वरुप, परिभाषा और लक्षण


विद्वानों का मत है कि धर्म वह है जो हमें आदर्श जीवन जीने की कला और मार्ग बताता है। केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड ही धर्म नहीं है। धर्म मानव जीवन को एक दिशा देता है। विभिन्न पंथों, मतों और संप्रदायों द्वारा जो नियम, मनुष्य को अच्छे जीवन यापन, जिसमें सबके लिए प्रेम, करूणा, अहिंसा, क्षमा और अपनत्व का भाव हो, ऐसे सभी नियम धर्म के तहत माने गए हैं।

परिभाषा : 

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥

धर्म शब्द संस्कृत की 'धृ' धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलंबन देना, पालन करना। इस प्रकार धर्म का स्पष्ट शब्दों में अर्थ है :
धारण करने योग्य आचरण धर्म है। सही और गलत की पहचान कराकर प्राणिमात्र को सदमार्ग पर चलने के लिए अग्रसर करे, वह धर्म है। जो हमारे जीवन में अनुशासन लाये वह धर्म है। आदर्श अनुशासन वह जिसमें व्यक्ति की विचारधारा और जीवनशैली सकारात्मक हो जाती है। जब तक किसी भी व्यक्ति की सोच सकारात्मक नहीं होगी, धर्म उसे प्राप्त नहीं हो सकता है।
वास्तव में, धर्म ही मनुष्य की शक्ति है, धर्म ही मनुष्य का सच्चा शिक्षक है। धर्म के बिना मनुष्य अधूरा है, अपूर्ण है।




धर्म के लक्षण :



मनुस्मृति के अनुसार धर्म के 10 लक्षण होते है जो कि निम्न प्रकार है-


धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
अर्थात-
धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, धी या बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना- ये धर्म के दस लक्षण कहलाते है।




1. धैर्य : धन संपत्ति, यश एवं वैभव आदि का नाश होने पर धीरज बनाए रखना तथा कोई कष्ट, कठिनाई या रूकावट आने पर निराश न होना।

2. क्षमा : दूसरो के दुव्र्यवहार और अपराध को लेना तथा क्रोश न करते हुए बदले की भावना न रखना ही क्षमा है।

3. दम : मन की स्वच्छंदता को रोकना। बुराइयों के वातावरण में तथा कुसंगति में भी अपने आप को पवित्र बनाए रखना एवं मन को मनमानी करने से रोकना ही दम है।

4. अस्तेय : अपरिग्रह- किसी अन्य की वस्तु या अमानत को पाने की चाह न रखना। अन्याय से किसी के धन, संपत्ति और अधिकार का हरण न करना ही अस्तेय है।

5. पवित्रता (शौच) : शरीर को बाहर और भीतर से पूर्णत: पवित्र रखना, आहार और विहार में पूरी शुद्धता एवं पवित्रता का ध्यान रखना।

6. इन्द्रिय निग्रह : पांचों इंद्रियों को सांसारिक विषय वासनाओं एवं सुख-भोगों में डूबने, प्रवृत्त होने या आसक्त होने से रोकना ही इंद्रिय निगह है।

7. धी : भलीभांति समझना। शास्त्रों के गूढ़-गंभीर अर्थ को समझना आत्मनिष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना। प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना।

8. विद्या : आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान, जीवन के रहस्य और उद्देश्य को समझना। जीवन जीते की सच्ची कला ही विद्या है।

9. सत्य : मन, कर्म, वचन से पूर्णत: सत्य का आचरण करना। अवास्तविक, परिवर्तित एवं बदले हुए रूप में किसी, बात, घटना या प्रसंग का वर्णन करना या बोलना ही सत्याचरण है।

10. आक्रोश : दुव्र्यवहार एवं दुराचार के लिए किसी को माफ करने पर भी यदि उसका व्यवहार न बदले तब भी क्रोध न करना। अपनी इच्छा और योजना में बाधा पहुंचाने वाले पर भी क्रोध न करना। हर स्थिति में क्रोध का शमन करने का हर संभव प्रयास करना।




धर्म का स्वरुप :


धर्म अनुभूति की वस्तु है। वह मुख की बात मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रुप हो जाना- उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है- वह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण का विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाना - यही धर्म है।
( स्वामी विवेकानंद)

वेदों एवं शास्त्रों के मुताबिक धर्म में उत्तम आचरण के निश्चित और व्यवहारिक नियम है -

1. ''आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देव: कृणुते स्वाय धर्मणे। (ऋग्वेद - 4.5.3.3) 
''धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेते असुरस्य मायया। 
(ऋग्वेद - 5.63.7)
यहाँ पर 'धर्म' का अर्थ निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धान्त) या आचार नियम है

2. अभयं सत्वसशुद्धिज्ञार्नयोगव्यवस्थिति:।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायायस्तप आर्जवम्।।
अहिंसा सत्यमक्रोधत्याग: शांतिर पैशुनम्।
दया भूतष्य लोलुप्तवं मार्दवं ह्रीरचापलम्।। 
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। (गीता : 16/1, 2, 3)
अर्थात - भय रहित मन की निर्मलता, दृढ मानसिकता, स्वार्थरहित दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, देवता और गुरुजनों की पूजा, यश जैसे उत्तम कार्य, वेद शास्त्रों का अभ्यास, भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना, व्यक्तित्व, मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, सच्ची और प्रिय वाणी, किसी भी स्थिति में क्रोध न करना, अभिमान का त्याग, मन पर नियंत्रण, निंदा न करना, सबके प्रति दया, कोमलता, समाज और शास्त्रों के अनुरूप आचरण, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, शत्रुभाव नही रखना - यह सब धर्म सम्मत गुण व्यक्तित्व को देवता बना देते है। धर्म का मर्म और उसकी व्यापकता को स्पष्ट करते हुए गंगापुत्र भीष्म कहते है-

3. सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्यफलं तप:।
बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।।
(महाभारत शांतिपर्व - 174/2)
अर्थात - धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। जब हम धर्ममय आचरण करते हैं तो चाहे हमें उसका फल तत्काल दिखाई नहीं दे, किन्तु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने (तप) का फल, मरण के पूर्व(ज्ञान रूप में) मिलता है। जब हम धर्म आचरण करते है तो कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है किन्तु ये कठिनाइयां हमारे ज्ञान और समझ को बढाती है। धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्ममय आचरण करने पर धर्म का स्वरुप हमें समझ में आने लगता है, तब हम अपने कर्मो को ध्यान से देखते है और अधर्म से बचते है।
धर्म की कोई भी क्रिया विफल नही होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नही जाता। महाभारत के इस उपदेश पर हमेशा विश्वास करना चाहिए और सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।



श्रीरामायण में धर्म :
वाल्मिकी रामायण में (3/37/13) भगवान श्रीराम को धर्म की जीवंत प्रतिमा कहा गया है। श्रीराम कभी धर्म को नहीं छोड़ते और धर्म उनसे कभी अलग नहीं होता है। (युद्ध कांड 28/19) श्रीरामचन्द्र जी के अनुसार, संसार में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। धर्म का पालन करने वाले को माता-पिता, ब्राह्मण एवं गुरु के वचनों का पालन अवश्य करना चाहिए।यथा:-
यस्मिस्तु सर्वे स्वरसंनिविष्टा धर्मो, यतः स्यात् तदुपक्रमेत।
द्रेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके, कामात्मता खल्वपि न प्रशस्ता॥
(श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण 2/21/58)
अर्थात- जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थों का समावेश नहीं, उसको नहीं करना चाहिए। जिससे धर्म की सिद्धि होती हो वहीं कार्य करें। जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है। यानि उससे, उसके अपने ही जलने लगते हैं। धर्म विरूद्ध कार्य करना घोर निंदनीय है।

इसी तरह देवी सीता भी धर्म के पालन का ही आवश्यक मानती हुऐ कहती हैं-
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिदं जगत्॥
(श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण 3/9/30)
अर्थात- देवी सीता के कहने का मतलब यह हे कि धर्म से अर्थ प्राप्त होता है और धर्म से ही सुख मिलता है। और धर्म से ही मनुष्य सर्वस्व प्राप्त कर लेता है। इस संसार में धर्म ही सार है। यह बात देवी सीता ने उस समय कही जब श्रीराम वन में मुनिवेश धारण करने के बावजूद शस्त्र साथ में रखना चाहते थे। वाल्मिकी रामायण में देवी सीता के माध्यम से पुत्री धर्म, पत्नी धर्म और माता धर्म मुखरित हुआ है।
यही कारण है कि देवी सीता भारतीय नारी का आदर्श स्वरुप है।



धर्म वास्तव में क्या है :
धर्म ईश्वर प्रदत होता है व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ नही क्योकि व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया हुआ 'मत' (विचार) होता है अर्थात उस व्यक्ति को जो सही लगा वो उसने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया और श्रद्धापूर्वक अथवा बलपूर्वक अपना विचार (मत) स्वीकार करवाया।
आज धर्म की बहुत सी शाखाएं हो गयी है किन्तु ये सभी 'मजहब' कहलाते है। इन्ही का नाम मत है, मतान्तर है, पंथ है , रिलिजन है।  ये धर्म नही हो सकते ।

ईश्वरीय धर्म में ये खूबी है की ये समग्र मानव जाती के लिए है और सामान है जैसे सूर्य का प्रकाश , जल  , प्रकृति प्रदत खाद्य पदार्थ आदि ईश्वर कृत है और सभी के लिए है । उसी प्रकार धर्म (धारण करने योग्य) भी सभी मानव के लिए सामान है । यही कारण है की वेदों में यह कहा गया है -
# वसुधैव कुटुम्बकम्
अर्थात - सारी धरती को अपना घर समझो,
# सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥
अर्थात - सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पडे।

उपरोक्त मजहबो में यदि उस मजहब के जन्मदाता को हटा दिया जाये तो उस मजहब का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा । इस कारण ये अनित्य है और जो अनित्य है वो धर्म कदापि नही हो सकता किन्तु सनातन वैदिक (हिन्दू) धर्म में से आप कृष्ण जी को हटायें, राम जी को हटायें तो भी सनातन धर्म पर कोई असर नही पड़ेगा क्यूकी वैदिक धर्म इनके जन्म से पूर्व भी था, इनके समय भी था और आज इनके पश्चात भी है  अर्थात वैदिक धर्म का करता कोई भी देहधारी नही। यही नित्य है।

भारत का सर्वप्रमुख धर्म हिन्दू धर्म है, जिसे इसकी प्राचीनता एवं विशालता के कारण 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है। अन्य धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी पैगम्बर या व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों, मत-मतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है।

सनातन धर्म को यदि एक पंक्ति में कहना हो तो यही कहा जाएगा - जियो और जीने दो। भारतीय सनातन परपंरा की यही विशेषता भारत को 'विश्व गुरु' बनाती है।

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तवयः मानो धर्मो हतोवाधीत्॥ 
(मनु स्मृति)
अर्थात -
धर्म उसका नाश करता है जो उसका (धर्म का ) नाश करता है | धर्म उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है | अतः धर्म का नाश नहीं करना चाहिए | ध्यान रहे धर्म का नाश करने वाले का नाश, अवश्यंभावी है।


इस लेख के माध्यम से मेरा उद्देश्य किसी की भावनाएँ आहात करने का नही अपितु सत्य की चर्चा करने का है ।

जय हिन्दू राष्ट्र
नमो राघवाय 



गुरुवार, 31 मार्च 2016

श्रीरामचन्द्र स्तुति

जय श्रीराम



श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं ।
नवकंज लोचन कंजमुख कर कंज पद कंजारुणं ॥१॥
व्याख्या- हे मन कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर । वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले है । उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है । मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥

कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी जनक सुतावरं ॥२॥
व्याख्या-उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित कामदेवो से बढ्कर है । उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है । पीताम्बर मेघरूप शरीर मे मानो बिजली के समान चमक रहा है । ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हू ॥२॥

भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥
व्याख्या-हे मन दीनो के बंधू सुर्य के समान तेजस्वी दानव और दैत्यो के वंश का समूल नाश करने वाले आनन्दकंद कोशल-देशरूपी आकाश मे निर्मल चंद्र्मा के समान दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ॥३॥

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं ।
आजानुभुज शर चाप-धर संग्राम-जित-खर दूषणं ॥४॥
व्याख्या- जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट कानो मे कुण्डल भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है । जिनकी भुजाए घुटनो तक लम्बी है । जो धनुष-बाण लिये हुए है. जिन्होने संग्राम मे खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥

इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं ।
मम ह्रदय कंज निवास कुरु कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥
व्याख्या- जो शिव, शेष और मुनियो के मन को प्रसन्न करने वाले और काम,क्रोध,लोभादि शत्रुओ का नाश करने वाले है. तुलसीदास प्रार्थना करते है कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल मे सदा निवास करे ॥५॥

मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥
व्याख्या-जिसमे तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर सावला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेगा. वह दया का खजाना और सुजान (सर्वग्य) है. तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥

एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली ।
तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥
व्याख्या- इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखिया ह्रदय मे हर्सित हुई. तुलसीदासजी कहते है-भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली ॥७॥

जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥
व्याख्या-गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय मे जो हरष हुआ वह कहा नही जा सकता. सुंदर मंगलो के मूल उनके बाये अंग फडकने लगे ॥८॥

सियावर रामचंद्र की जय

श्रीगणेश वंदना

सर्वप्रथम अग्रगण्य भगवान गणेश को प्रणाम

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा॥

गजाननं भूतगणादि सेवितं,
कपित्थ जम्बूफलसार भक्षितम्।
उमासुतं शोक विनाशकरणम्,
नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम्॥

सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छ्रुणुयादपि॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥

श्रीमन्महागणाधिपत्ये नमः
लक्ष्मीनारायणाभ्याम नमः
उमामहेश्वराभ्यां नमः
वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः
शचीपुरंदराभ्यां नमः
मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः
इष्टदेवताभ्यो नमः
कुलदेवताभ्यो नमः
ग्रामदेवताभ्यो नमः
वास्तुदेवताभ्यो नमः
स्थानदेवताभ्यो नमः
एतत्कर्मप्रधानदेवताभ्यो नमः
सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः
सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।